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चंदनगंधा याद

दोहे
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राजेन्द्र गौतम

सांझ गई, सांझी गई गुम सांझा संसार

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झिलमिल दीपक ताल का कब जा पाया पार!

भीगी आंखों ताकते दूर तटों से फूल

खंड-खंड जलयान था, डूब गए मस्तूल!

अपना सब कुछ सौंप हम कब के हुए फकीर

तुझे न कुछ भी दे सके, क्या अपनी तकदीर!

हाथ न आई छूट कर संबोधन की बांह

सपनों के जंगल घने, चकमा देती राह!

लोहा लक्कड़ ईंट से बना कहां है गेह

सब भवनों की नींव में एक अकेला नेह!

कॉल हमारी होल्ड पर, दूर गई आवाज़

पता नहीं अब कब मिले शब्दों को परवाज़!

सहमी-सी परछाइयां रही क्षितिज तक देख

सन्नाटे में बच रहे कुछ धुंधले से लेख!

लिपट रहा मन देह से, जगी हिमानी आग

तुम चंदन सी महकती, मैं प्रियदर्शी नाग

कितना मुश्किल हो रहा चुप्पी से संवाद

दूर कहीं पर खो गई चंदनगंधा याद!

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