दिनेश विजयवर्गीय
नयागांव के रामसुख बाबू को सकलपुरा के सेकेंडरी स्कूल से रिटायर हुए दो माह होने को आये, पर अभी तक भी पेंशन चालू नहीं हुई। अगामी दिसम्बर में उनकी बिटिया की शादी होनी है। उनकी पत्नी सोमवती ने उन्हें स्कूल जाकर मालूम करने को कहा।
जीवनभर थर्ड ग्रेड टीचर रहे रामसुख की पारिवारिक जिम्मेदारियांे के चलते उनकी आर्थिक दुनिया बस हर माह मिलने वाले थोड़े से वेतन पर ही टिकी थी। पत्नी की सलाह पर वह अपने गांव से पंद्रह किलोमीटर दूर पगडंडी जैसी कच्ची राहों पर साइकिल चलाते स्कूल पहुंचे। उस दिन प्रधानाध्यापक अवकाश पर थे। बाबूजी भी अभी तक आये नहीं थे। किसी को यह भी पता नहीं, आखिर इंतजार करते वह दुखी मन से वापस घर लौट आये।
पंद्रह दिन बाद एक सोमवार को वह फिर साइकिल से स्कूल गये। इस बार प्रधानाध्यापक और बाबू दोनों आये हुए थे। उन्होंने प्रधानाध्यापक से अपने पेंशन केस के बारे में जानकारी चाही, तो उन्हांेने बाबू से बात करने को कहा। बाबू कमरे में नहीं था। चपरासी ने बताया बाहर होटल पर चाय पीने गये हैं। रामसुख, राम जी का नाम लिये उनका इंतजार करते बैठे रहे। एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद वह प्रकट हुए। बाबू उन्हें आया देख उनके आने का कारण समझ गया था। बोला, ‘मास्टर जी अभी तक आपका पेंशन केस तैयार होकर नहीं आया। वैसे अब तक आ जाना चाहिए। ऐसा करिये आप शहर के पेंशनर ऑफिस में जाकर सही स्थिति का पता लगा लें।’
दो दिन बाद वह पचास किलोमीटर दूर शहर के पेंशनर ऑफिस के लिये धूल उड़ाती कच्ची-पक्की राहों में चलती प्राइवेट बस से तीन घंटे में पहुंच गये। जैसे-तैसे बड़े टेम्पों में बैठ ऑफिस पहुंचे। सुबह के साढ़े दस बज चुके थे। अभी तक बड़े बाबूजी नहीं आये थे। सितम्बर महीने की धूप तेजी पर थी। रामसुख भी वहां के लोगों से पूछताछ कर उस स्थान पर पहुंच गये जहां पेंशन केस से सम्बन्धित समस्या ग्रस्त लोगांे की लाइन लगी थी। गर्मी की तपन अखरने लगी। बाबूजी का सभी बेसब्री से इंतजार करने लगे।
लाइन में नम्बर दो पर खड़े व्यक्ति ने कहा, ‘सब गैर-जिम्मेदार हैं। टाइम की चोरी कर रहे हैं। आधा घंटा बीत चुका, पर अभी तक आने का नाम नहीं। किसी को कोई चिन्ता नहीं।’ टोपी वाले एक सज्जन बोले, जो शायद टीचर ही रहे होंगे, कहने लगे- हम कभी दस पन्द्रह मिनट लेट हो जाते तो प्रिसिंपल घूरती आंखों से देखने लगते और कभी कागज पकड़ाने की धौंस देते। मैं कहता हूं, अभी तो यहां अधिकारी भी नहीं आया। सामने कमरे की ओर देखो, चपरासी साहब के इन्तजार में इधर-उधर चहलकदमी कर रहा है। एक ठिगने कद के कुर्ता-पायजामा पहने व्यक्ति ने कहा, ‘यहां भ्रष्टाचार है। बिना लिये-दिये पेंशन केस जल्द नहीं निकल पाता। इन्हें रिटायर हुए व्यक्ति की स्थिति का क्या पता, ये तो पूरे रोकड़े जो गिनते हैं।’ तभी चपरासी दौड़ता-सा आया। लगा जैसे कोई खुशखबरी सुनाने आया हो। बोला, ‘आज बड़े साहब नहीं आ रहे, जयपुर मीटिंग में गये हैं। बड़े बाबूजी अभी आयेंगे। वो ही आपकी समस्या का निपटारा करेंगे।’
जो लोग अपनी शिकायत बड़े अधिकारी तक पहुंचाना चाह रहे थे निराश होकर रह गये। अभी कुछ लोग और अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते तभी नीले रंग का सफारी सूट पहने धड़धड़ाती मोटरसाइकिल पर एक मोटा-सा आदमी मुंह से पान की पीक धूंकता और हमारी ओर घूरता बरामदे में प्रवेश कर, अपने कमरे में घुस गया। तभी आगे वाला व्यक्ति चपरासी से बोला, ‘अब मिल लें बाबूजी से?’
‘नहीं अभी नहीं। वह स्वयं बता देंगे कब मिलना है लोगों से, अभी तो आये हैं। पसीना सुखा लेने दें। वह नॉर्मल हों तब तक इंतजार करें।’ आधा घंटा इंतजार करने के बाद चपरासी ने उनसे क्रमानुसार मिलने को कहा। एक घंटे बाद रामसुख मास्टर जी का मिलने का नम्बर आया। ‘बोलिये क्या समस्या है आपकी?’ बाबूजी ने उनके चेहरे को पढ़ते हुए कहा।
‘सर! दो महीने हो गये रिटायर हुए, पर अभी तक पेंशन केस फाइनल नहीं हुआ। पेंशन मिले बिना बड़ी असुविधा होने लगी है।’
बाबूजी ने बात सुनकर कहा, ‘आप ऐसा करिये ऊपर दस नम्बर रूम वाले बाबू से मिलिये। वही आपके क्षेत्र के पंेशन केस को डील करते हैं।’
रामसुख सीढ़ियां चढ़ पूछते-ताछते दस नम्बर वाले कमरे में पहंुचे। देखा वहां कोई बाबू नहीं था। ऊपर विंग वाले चपरासी ने बताया, ‘बाबूजी चाय पीने गये हैं, इन्तजार करें।’
आधे घंटे इन्तजार के बाद बाबू आया। आते ही प्रतीक्षा कर रहे मास्टर रामसुख ने कहा, ‘बाबूजी मेरा पेंशन केस फाइनल नहीं हुआ। दो माह हो गये। प्रतीक्षा करते आखिर यहां आना पड़ा।’
बाबू उनसे सारा विवरण पूछ कर बोला, ‘उस सामने वाली आलमारी के ऊपर रखी फाइलें उतारंे, उन्हीं में होनी फाइल।’ वह स्टूल पर चढ़ कर फाइल उतारने लगे, तो संतुलन बिगड़ने से गिर पड़े। बायें हाथ की कलाई में दर्द उठ गया। सारा दर्द सहकर भी वह चुप रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
बाबू ने उनकी फाइल निकाल कर केस देखा। फिर कहा, ‘इसमंे दो जगह संस्था प्रधान के साइन छूट रहे हैं। इसीलिये यह ऑब्जेक्शन में पड़ी है।’
‘तो भिजवा देते, अब तक कभी के साइन होकर वापस यहां पहुंच जाती।’ रामसुख ने सहजता से निवेदन करते हुए कहा।
‘हमारे पास केवल एक ही काम थोड़े ही है। हर माह कई कर्मचारी रिटायर होते हैं। समय मिलता है, तब उचित कार्यवाही कर, जैसी स्थिति होती है, उसके अनुसार काम करना होता है।’
‘तो क्या अब इसे साइन के लिये वापस लौटा देंगे?’
‘हां! कुछ दिनों बाद इसे आपके स्कूल भेज देंगे।’
‘पर इसमें तो फिर एक माह और लग जायेगा।’ उन्होंने दुखी मन से कहा। क्या, इसकी पूर्ति बिना पेंशन केस, फाइनल नहीं हो सकता?’
‘वैसे ये इतनी बड़ी समस्या नहीं है। आप नीचे बड़े बाबूजी से मिल लें। शायद कोई विकल्प सुझा दें।’ रामसुख अच्छी आशा लिये नीचे बड़े बाबूजी के पास उनके कमरे में जाने लगे। ‘अभी साहब चाय पी रहे हैं। थोड़ा रुकिये।’ चपरासी ने उन्हें टोकते हुए कहा। पन्द्रह मिनट बाद रामसुख बड़े बाबूजी के सामने खड़े थे। ‘बोलिये, क्या रहा आपकी समस्या का?’ उन्होंने मुस्कराते हुए पूछा।
‘सर! संस्था प्रधान के दो जगह साइन छूटे हुए हैं। ऊपर वाले बाबूजी ने कहा- इसे फिर स्कूल भिजवा दिया जायेगा। साथ ही यह भी कहा कि यह ऐसी समस्या नहीं है। बड़े बाबूजी को बता देना। शायद कोई हल निकाल दें।’ ताकि जल्द ही पेंशन केस बन सके। उन्होंने ऊपर से फाइल मंगा कर देखी। ’
‘हां भाई, टाइम तो लगेगा। एक माह और लग सकता है।’
‘सर, पहले ही दो माह से असुविधा झेलनी पड़ रही है। और अब आप भी कह रहे हैं, एक माह और लगने की संभावना है।’
‘आपका क्या नाम है ?’
‘जी, रामसुख।’
‘हां, तो रामसुख जी, बैठिये जरा। अभी समझौता कर आपकी समस्या का हल निकालते हैं।’
‘सर! समझौता कैसा? मैं समझा नहीं?’
‘तुम नहीं समझते। अरे रामहेत।’ उन्होंने चपरासी को आवाज लगाई।
‘रामहेत तुरन्त हाजिर हुआ। इन्हें थोड़ा समझौते के बारे में समझा दो।’
रामहेत उन्हें बाहर ले गया और बोला, ‘देखिये, यदि आपको शीघ्र काम कराना हो तो अधिक नहीं पांच सौ रुपये देने होंगे। आपकी फाइल दो-तीन दिन में भेज दी जाएगी। नहीं तो फिर जितना भी समय लग जाए, कुछ कह नहीं सकते। यहां तो सैकड़ों केस हर माह आते हैं।’
उसकी बातें सुन रामसुख के चेहरे पर पसीने की बूंदें छलछला आईं। वे सोचते रहे। जेब में तो एक सौ रुपये मात्र हैं। इसी में वापस घर जाने का किराया भी लगना है। उसने पल भर सोच कर कहा, ‘भैया मुझे कोई समझौता नहीं करना। भेज देना फाइल वापस, हो जाएंगे छूटे हुए साइन।’ जब वह अपना निर्णय सुना रहा था, तभी लाइन में खड़ा भ्रष्टाचार की बात कहने वाला व्यक्ति बाबूजी के कमरे से प्रसन्न होता हुआ बाहर निकला। मैंने पूछा, ‘हो गया आपका केस फाइनल?’
‘भाई मेरे! आज सहयोग से सब कुछ संभव है। कल ही मेरा केस फाइनल होकर भेज देंगे।’
‘और आपका क्या रहा?’ उसने रामसुख जी को कुरेदा।
‘नहीं भैया, मैं इस कपटपूर्ण समझौते से सहमत नहीं हूं। कुछ समय इन्तजार और कर लूंगा। पर भ्रष्टाचार की बहती गंगा में स्नान नहीं करूंगा।’ और यह कहते रामसुख फिर अंगोछे से पसीना पौंछते सीढ़ियां उतर चले गये। चपरासी हाथ से छूटी हुई चांदी को दूर होता जाता देखता रहा।