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रामखिलावन

कविताएं
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मज़दूर

रामखिलावन का बेटा

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आई.ए.एस अफसर हो गया है!

मज़दूर रामखिलावन अब

गिड़गिड़ाने नहीं,

खिलखिलाने लगा है...

मज़दूर रामखिलावन

रामखिलावन

हो गया है!

रामखिलावन अब

कविता, विमर्श, आंदोलन वालों के

किसी काम का

नहीं बचा है

रामखिलावन को

जात-बाहर कर दिया गया है।

मेरा रामखिलावन

बहुत अकेला हो गया है...

आज़ादी

इस बार मुझे

चाहिए आज़ादी,

अपनी पैदाइश से

पहले ही!

करना चाहती हूं

इस बंटे-कटे जहान में

बे-जात,

बे-मज़हब,

बे-जेण्डर,

बेखौफ गुस्ताख़ एंट्री!

रूमी के रक्स,

दरवेशों के ‘हाल’,

अष्टावक्र के ‘निरंजन’ सी!

आ, मुझे अपने

आगोश में समेट ले,ज़मीं!

कायनात!

कर खाली

मेरी ख़ातिर

कोई कोख करामाती-

बेचैन है पैदा होने को-

इक सुबह नई।

अन्त

साल दर साल-

वही नाटक,

वही पात्र,

बदल भेस,

बोलते घिसे-पिटे संवाद।

करवा रहे हैं

अपनी वाह-वाही,

दिलवा रहे हैं जबरन

खुद को दाद!

सावधान सूत्रधार!

बढ़ रही हैं

खाली कुर्सियां,

हर शो के साथ!

बहुत जल्द

उगा पांव,

मुटि्ठयां तान,

ये बाग़ी कुर्सियां

जा पहुंचेंगी सेंटर-स्टेज—

छीन रंगमंच,

गिरा पर्दा,

कर देंगी तुम्हारी इस

निर्लज्ज नौटंकी का

अन्तिम अन्त!

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