कविताओं में गहन अंतर्दृष्टि
कविता—खुद को तपाना भी है और राहत पहुंचाना भी। यह सहमति भी है और असहमति भी। दुख भी है और तृप्ति भी। एक तरह से, कविता कवि की दृष्टि से सम्पूर्ण सृष्टि का रूपक है।
कविता संग्रह ‘सुख को भी दुख होता है’ की कविताओं में भी यही गहन अंतर्दृष्टि दिखाई देती है। ये कविताएं विस्तृत फलक वाली हैं—प्रेम, राजनीति, जीव-जगत और स्त्री-पुरुष की वेदनाओं को समरूपता और बिना किसी पूर्वग्रह के छूती हैं।
कायदे से, सबसे अच्छी कविताएं वे मानी जानी चाहिएं जो समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चील-दृष्टि रखती हैं और बिना किसी पक्षपात के अपना प्रतिरोध दर्ज करती हैं।
श्रुति कुशवाहा की कविताएं भी समाज, सत्ता, धर्म, राजनीति और जीवन के कोने-कोने में फैली विद्रूपताओं को गहराई से देखती हैं। साथ ही, वे सीधे, पारदर्शी और तीखे स्वर में अपना प्रतिरोध भी दर्ज करती हैं।
ये कविताएं केवल अन्याय के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठातीं, बल्कि वे पीड़ितों, शोषितों और कमजोरों के साथ खड़ी होती हैं। हारे हुए लोगों के प्रति कवयित्री की गहरी संवेदना को इस कविता की पंक्तियों में पढ़ा जा सकता है :-
‘हारे हुए लोग आखिर कहां जाते हैं,
जो अपने आखिरी इंटरव्यू में हो गए फेल...,
जिन्हें अपने ही घर में मिली दुत्कार,
पिता के तानों में ‘नालायक’ कहलाए,
कहां जाते हैं प्रेम में छले हुए लोग?’
कवयित्री की कविताओं में ‘मनुष्य होने’ का आग्रह बार-बार झलकता है :-
‘ठीक-ठीक मनुष्य होने में बहुत कसर छूट जाती है,
उसी वक्त छूटती है—खुद से नज़रें मिलाने की ताक़त।’
लेकिन जहां आग्रह की गुंजाइश नहीं बचती, वहां कवयित्री एक तीखा तंज करती हैं :-
‘यहां आप दिन को रात समझिएगा,
बिलकुल उसी तरह—
जैसे कई लोग सरकार को राष्ट्र समझते हैं।’
पाठक हमेशा कुछ नया और प्रभावशाली पढ़ना चाहता है। इस लिहाज़ से देखा जाए तो पत्रकार और कवयित्री ‘श्रुति कुशवाहा’ का यह कविता संग्रह प्रभावशाली भाषा, नई शैली और एक अलग ही मिज़ाज में लिखा गया है।
पुस्तक : सुख को भी दुख होता है कवयित्री : श्रुति कुशवाहा प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 151 मूल्य : रु. 250.