उससे पहले भी स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की हर राजनीतिक रैली में उस्ताद दामन को मंच थमा दिया जाता। यह जन कवि उन दिनों आम लोगों में जोश फूंकता। उन्हें आज़ादी की लहर में शामिल होने का खुला निमंत्रण देता। उसकी मौजूदगी जनसभा की सफलता की गारंटी दे देती थी।
डॉ. चंद्र त्रिखा
एह दुनिया मंडी पैसे दी
हर चीज़ विकेंदी भा सजना
एथे रोंदे चेहरे, विकदे नहीं
हंसने दी आदत पा सजना
(यह दुनिया पैसे की मंडी है। यहां हर चीज़ एक भाव पर बिकती है। यहां रोते चेहरे नहीं बिकते। तुम भी यहां हंसने की आदत डाल लो।)
लाहौर के इस पंजाबी शायर ने, आम आदमी के बीच, जो जगह बनाई थी, उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। दशकों तक यह शायर अपने समकालीन परिवेश में गुनगुनाया जाता रहा।
लगभग हर नज़्म पर पुलिस थाने में पेशी या फिर जेल, यही था इस लोकप्रिय जनकवि का नसीबा। अपने समय के बाद इस महान जनकवि को पाकिस्तान टाइम्स के मालिक मियां इफ्तिख़ार-उद-दीन, साहित्य के साथ-साथ सियासत में भी ले गए थे। हालांकि, उसकी शुरुआती जि़न्दगी का एक मुख्य भाग ब्रिटिश साम्राज्य की जेलों में ही कटा था। मगर बाद में अपने आज़ाद वतन पाकिस्तान में भी जेलों से अक्सर रिश्ता बना ही रहा।
उस्ताद चिरागदीन का जन्म 4 सितम्बर, 1911 में लाहौर में ही हुआ था। पेशे से दर्जी थे। मियां इफ्तिखार-उद-दीन से भी इसी पेशे की बदौलत पहली मुलाकात हुई। मियां ने चिरागदीन की जनप्रिय शायरी का जि़क्र भी सुना हुआ था। वर्ष 1930 में ही वहां पंडित नेहरू की एक जनसभा थी, जहां लोगों को जमाए रखने के लिए चिरागदीन को मंच दे दिया गया। पंडित नेहरू उनकी शायरी के साम्राज्यवाद विरोधी तेवर के इतने मुरीद हुए कि उन्होंने उन्हें पोएट आफ फ्रीडम यानी ‘शायरे-आज़ादी’ घोषित कर दिया।
वर्ष 1947 में विभाजन के समय दंगों की आग में लाहौर के जो मुसलमान परिवार भी झुलसे, उनमें उस्ताद चिरागदीन का परिवार भी शामिल था। उनकी दुकान व मकान दोनों ही जला दिए गए। बीवी और बेटी भी दंगों में मारी गईं। कहा तो यह भी जाता है कि उस्ताद दामन दंगाइयों का विरोध कर रहे थे और अपने कुछ गैर-मुस्लिम दोस्तों को बचाने की मशक्कत में लगे थे। इस पर दंगाई भीड़ ने गुस्से में आकर उस्ताद के घर को भी आग के सुपुर्द कर दिया।
इस हादसे के तत्काल बाद कुछ गैर-मुस्लिम परिवारों ने उन्हें अपने साथ भारत ले जाने की पेशकश की, मगर अपनी जड़ों से बेपनाह मुहब्बत के नाम पर चिरागदीन ने लाहौर में ही बने रहने को तरजीह दी। वे जब तक जिए, वहां की तानाशाही हुकूमतों के खिलाफ लड़ते रहे। ज़्यादातर वक्त जेलों में ही बीता। हर बार तानाशाही के िखलाफ नज़्में लिखने व मंचों पर बोलने के आरोपों में ही कैद होते।
एक बार वहां एक सरकारी संस्थान की ओर से मुशायरा आयोजित हुआ, जिसमें एक पंक्ति दी गई थी, ‘पाकिस्तान च मौजां ही मौजां’ अर्थात् पाकिस्तान में मौजें ही मौजें। उस्ताद को भी नज़्म का न्योता मिला। अभी नज़्म का पहला शे’र ही पढ़ा था कि पुलिस वालों ने मंच से नीचे उतारा और सीधा थाने ले गए। शे’र यूं था :-
‘पाकिस्तान च मौजां ई मौजां,
जिधर वेखो फौजां ई फौजां’
उधर शुरुआती दौर में ही मौलवी-मुल्ला, उस्ताद के खिलाफ फतवे जारी करने लगे। उनकी एक नज़्म पर कट्टरपंथियों ने खूब हो-हल्ला मचाया। नज्म थी :-
‘मुल्लां आप शराब ते नहीं पींदा
पर खून तां किसे दा पी सकदै/
पुड़ ज़मीं आसमान दा रहे चलदा
दाने वांग इन्सान नूं पीह सकदै/
ऐत्थे ज़ुल्म ही ज़ुल्म ने हर पासे।
कित्थों तीक कोईलबां नूं सी सकदै।’
महात्मा गांधी की शहादत पर भी उन्होंने एक नज़्म लिख दी थी :-
‘गोली मारी ए जिन्हें महात्मा नूं
ओहने ज़मीन दा गोला घुमा दित्ता/
चीखां विच आवाज़ इक अमन दी सी
किसे ज़ालिम ने गला दबा दित्ता।’
उससे पहले भी स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की हर राजनीतिक रैली में उस्ताद दामन को मंच थमा दिया जाता। यह जन कवि उन दिनों आम लोगों में जोश फूंकता। उन्हें आज़ादी की लहर में शामिल होने का खुला निमंत्रण देता। उसकी मौजूदगी जनसभा की सफलता की गारंटी दे देती थी।
एक बार एक रैली में गांधी की मौजूदगी के बावजूद लोग बार-बार उस्ताद दामन की फरमाइश करने लगे। गांधी ने स्वयं उस्ताद को खादी की माला पहनाई और नज़्म पढ़ना जारी रखने का आदेश दिया। वह चर्चित नज़्म थी :-
‘बेहतर, मौत आज़ादी दी समझदे हां
असीं ऐस गुलामी दी जि़न्दगी तों
साडा वतन, हकूमत है गैर-वतनी
मर मिटांगे ऐस शर्मिन्दगी तों।’
गम्भीर शायरी व सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहने के साथ-साथ उस्ताद दामन को हास्य व व्यंग्य में भी विशेष लोकप्रियता प्राप्त थी। बदलती हुई सामाजिक संरचना पर उनका एक व्यंग्य था :-
‘एह कॉलेज ए कुड़ियां ते मुंडियां दा/ जां फैशना दी कोई फैक्टरी ए/ कुड़ी, मुंडे दे नाल पई इंज तुरदी/ ज्यों अलजबरे नाल जमैट्री ए।’
अपने देश की अमेरिका परस्ती व अमेरिका पर निर्भरता के खिलाफ उस्ताद दामन का लहजा अनोखा ही रहता था।
‘जि़ंदाबाद अमरीका
हर मर्ज दा टीका
जि़ंदाबाद अमरीका’
उनके शिकवे-शिकायत अल्लाह मियां से निरंतर चलते रहे। वहां के निम्नमध्यम वर्ग व सामाजिक विषमताओं पर उस्ताद दामन के व्यंग्य बेहद तीखे भी थे और आम आदमी की ज़ुबान पर भी चढ़ जाते थे। अल्लाह से शिकवे की चार पंक्तियां देखें :-
जेकर सामने होवे, तां गल्ल करिए
‘खौरे अर्श ते बैठा ओह की करदा
एह दुनियां बनाई, घमण्ड ऐडा
जित्थे डुबके मरन नूं जी करदा’
उस्ताद ने अपने जीते जी अपना कोई काव्य संकलन छपने ही नहीं दिया। उनका कहना था, ‘किताबों में कैद हो गया तो आवाम से मुखातिब कैसे हो पाऊंगा।’ लेकिन बाद में उस्ताद पर शोध प्रबंध भी लिखे गए और कलाम भी छपे। पूरे उपमहाद्वीप में आम आदमी की भाषा में हिन्दू-मुस्लिम, सिख, सौहार्द को समर्पित इस एकमात्र जनकवि ने 3 दिसम्बर, 1984 को लाहौर में ही अंतिम सांस ली थी।