सत्यवीर नाहड़िया
मुट्ठी में आकाश तथा गागर में सागर भर लेने की क्षमता रखने वाले दोहा छंद ने जिस प्रकार भक्तिकाल तथा रीतिकाल में अपनी छाप छोड़ी, उसी प्रकार आधुनिक काल में भी इस छंद की अपनी मौलिक पहचान बनी रही है। तेरह-ग्यारह के क्रम में चार चरणों तथा अड़तालीस मात्राओं में कुछ विशिष्ट नियमावली के तहत ही मानक दोहे कहे जा सकते हैं। दोहे की तरह ही सतसई लेखन परंपरा भी पुरानी है।
आलोच्य कृति नाहर सतसई रचनाकार रघुबीर सिंह नाहर की कृति है, जिसमें पूरे सात सौ दोहे हैं। इन दोहों में एक ओर जहां सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं को मार्मिकता से अभिव्यक्त किया गया है, वहीं इनमें सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार भी है। ये दोहे सोए हुए दलित,शोषित, वंचित, कुचलित, उपेक्षित वर्ग को जगाते प्रतीत होते हैं। सामाजिक चेतना के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण पर रचनाकार का आह्वान देखते ही बनता है :-
सांसों की गिनती करो, लेते बारंबार।
बदले में क्या दे रहे, देख रहा संसार॥
अधिकांश दोहे सामाजिक चेतना की अलख जगाते हैं, किंतु सतसई के बहुत सारे दोहों में छंददोष अखरता है। उदाहरण के तौर पर कुछ विषम चरण देखिए— संविधान ने दिया/ कब निकल कर आयेगा/ भर-भराकर गिरती हैं/ कब रूठे कब मान गए/ बदली जब आ जाएगी/ हो सके तो बन जाओ/बन जाओ पारस मणि/बिन मौसम के खिले रहे/ राजनेता बनने का/मिल-बैठ बातें कर लो/ त्याग दो बैसाखियां/ अलि कली से दूर रहे/देखा कुछ समय पहले/ छम छम बाजे तेरी पायलिया/ सारे जहां की खुशियां/ अंदर से ज्ञान उपजा आदि आदि। इसी प्रकार के दोष सम चरणों में भी हैं, जैसे-निकला मधु अपार/ बुद्धिजीवी मौन/ आ पहुंचे बेईमान/ होता एक ही काम/ हिम्मत न देना छोड़ आदि। अनेक दोहोंं के प्रारंभ में जगण का प्रयोग तथा वर्तनी की अशुद्धियां हैं, जिन्हें अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है। सतसई का भावपक्ष बेहद उज्ज्वल है।
पुस्तक : नाहर सतसई रचनाकार : रघुबीर सिंह नाहर प्रकाशक : साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, दिल्ली पृष्ठ : 120 मूल्य : रु. 300