अंधेरा कहीं रह न जाए
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नई ज्योति के धरा नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहां रोज आए।
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आएं नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अंधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
जगमग-जगमग
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हे थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों में, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दिवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
बुझा दीपक जलाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
है कहां वह आग जो मुझको जलाए,
है कहां वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदें भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
दीपदान
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दीया जला आना,
पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आंचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती है,
एक दीया वहां भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दीया वहां जहां नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दीया वहां जहां उस नन्हे गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दीया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दीया वहां जहां गगरी रक्खी है,
एक दीया वहां जहां बर्तन मंजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दीया वहां जहां अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,
एक दीया उस घर में –
जहां नई फसलों की गंध छटपटाती है,
एक दीया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती है
एक दीया वहां जहां झबरा बंधता है,
एक दीया वहां जहां पियरी दुहती है,
एक दीया वहां जहां अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दीया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दीया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दीया इस चौखट,
एक दीया उस ताखे,
एक दीया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जाकर दीया जला आना,
पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
साभार : कविता कोश