सरस्वती रमेश
जीवन तमाम तरह के उतार-चढ़ाव और उथल-पुथल से भरा है। इनके बीच विविध प्रकार के बंधन और बंदिशें भी हैं। ये बंधन कभी तो हमें जरूरी लगते हैं और कभी अवरोध की तरह हमारा रास्ता रोककर खड़े हो जाते हैं। कभी मोह हो आता है और कभी मुक्ति के लिए जी छटपटा उठता है। किसी के लिए कोई बात सुखकर होती है तो किसी के लिए वही बात दुखदाई। इन्हीं विपरीत धाराओं के बीच समन्वय का नाम जीवन है। और इसी जीवन के सपनों, इच्छाओं, रिश्तों, विसंगतियों और प्रकृति को आधार बनाकर लिखी गई कविताओं का संग्रह है ‘रेशमी रस्सियां’। प्रतिश्रुति प्रकाशन से आए इस कविता संग्रह को रचा है धीरा खंडेलवाल ने।
कवयित्री ने समाज की विद्रूपताओं को देखने की अलग दृष्टि पाई है। कविताओं में विविधता है। वे प्रकृति के नाजुक आयामों पर अपनी नजर रखने के साथ दमित लोगों और उनकी इच्छाओं पर भी दृष्टि रखती हैं। उनके रूपक भी प्रभावशाली हैं। वे अन्याय की घटनाओं को अपने शब्दों के माध्यम से मार्मिक अभिव्यक्ति देती हैं :-
लड़कियां भी/ सूखी लकड़ियां होती हैं/
जल जाती हैं/ ससुराल जाके।
कविता उनके लिए मात्र मन में उमड़-घुमड़ रहे विचारों को कलमबद्ध कर लेने की क्रिया भर नहीं, बल्कि वे कविता को एक साधक की भांति साधना चाहती हैं। भूमिका में वे लिखती हैं ‘सृजन की तड़प और विवशता ही संसार की गतिशीलता और अपने भीतर की स्थिरता को साधने का मंत्र देती है। इस मंत्र की साधना ही हमें अपने होने का अहसास करवाते हुए जीवन के अर्थ समझाती है।’
सहज सरल भाषा में लिखी कुछ कविताएं मन को बांधती हैं तो कुछ कमजोर भावों के कारण प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहती हैं।
पुस्तक : रेशमी रस्सियां कवयित्री : धीरा खंडेलवाल प्रकाशक : प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता पृष्ठ : 120 मूल्य : रु. 220