प्रकृति से मनुष्य का नाता उतना ही पुराना है, जितना स्वयं मनुष्य। ज्यादा नहीं सिर्फ शताब्दी भर पहले तक मनुष्य पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर था। उसके क्रियाकलाप प्रकृति से अलग नहीं थे। उसके प्रत्येक क्रिया में प्रकृति उसकी श्वास की तरह शामिल थी। मगर विज्ञान और तकनीक ने मनुष्य को प्रकृति से दूर किया। मनुष्य अब अपनी बनाई भौतिक दुनिया से हर वक्त घिरा रहता है। मगर मनुष्य प्रकृति से अलग नहीं है। मनुष्य और प्रकृति के अंतर्संबंध की व्याख्या है काव्य संग्रह ‘प्रकृति की बाहों में।’ इसे रचा है कवयित्री आशमा कौल ने।
इन कविताओं में प्रकृति के सौंदर्य की चर्चा भी है और इसके विनाश की चिंता भी। बड़े ही सीधे सरल शब्दों में कवयित्री ने कहीं प्रकृति को दुलारा है तो कहीं मनुष्य को दुत्कारा है।
प्रकृति जीवन है
यह सांसें हैं सृष्टि की
सांसों को है संभालना।
कविताओं में प्रकृति के नियमों और उसके आचरण से मनुष्य को सीख लेने की सलाह है। दुख और निराशा सिर्फ मनुष्य के जीवन में नहीं आते बल्कि प्रकृति में भी आते है। मगर इस निराशा से उबरने का दोनों का तरीका अलग-अलग है। दुख के दिनों में प्रकृति धैर्य रखती है। जबकि इंसान अधीर हो जाता है। संग्रह में कुछ कविताएं जीवन, रिश्तों और स्वभाव की भी हैं।
सभी कविताएं दस पंक्तियों में लिखी गई हैं, जिससे ये एक लय में लिखी हुई प्रतीत होती हैं।
पुस्तक : प्रकृति की बाहों में लेखिका : आशमा कौल प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नोएडा पृष्ठ : 113 मूल्य : रु. 230.