राजवंती मान
शमीम् हनफी उर्दू के उच्च कोटि के आलोचक, शायर, नाटककार और उर्दू साहित्य में आधुनिकता के प्रस्तावक रहे हैं। ‘हमसफर के दरमियां’ पुस्तक में समाहित लेख उनके पिछले 50-60 साल के सृजन काल में लिखे गए आलोचनात्मक लेखों में से संकलित किए गए हैं। मूलतः उर्दू में लिखे गए इन आलेखों का शुभम् मिश्रा द्वारा हिंदी लिप्यांतरण किया गया है। हिंदी में लिप्यांतरित होने के बावजूद यह अपने आस्वाद, कलेवर और फ्लेवर में उर्दू के ही प्रतीत होते हैं।
शमीम् हनफी बहुत साफगोई से यह बात वाजेह करते हैं कि हमारी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परंपराएं हैंं और उसी के आधार पर हमें अपने प्रगतिवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकता की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए, न कि पश्चिमी जीवन या सोच-समझ की कार्बन कॉपी बनना चाहिए। वे अपनी आलोचना का आधार शुद्ध भारतीय आचार विचार को मानते हैं। इस संकलन में समाहित शायरों के कलाम को इसी नुक्ताए नजर से आंकते हैं।
पुस्तक की शुरुआत इकबाल और नयी नज्म का पहला मोड़ से करते हैं। हाली और आजाद की कायम की हुई रिवायत का शिखर बिंदु इकबाल की नज्म है। इकबाल जदीद शायरी के पहले अहम शायर हैं, फैज ने यह खुले दिल से स्वीकार किया है। फैज से होकर राशिद और मीराजी और अख्तरुल इमान की शायरी पर बात करते हैं। अख्तर उल इमान की शायरी को वह नयी शायरी की आखिरी बड़ा शायर मानते हैं।
यहां हमें दो-तीन तरह की साहित्यिक परम्पराएं मिलती हैं। रिवायती (पारम्परिक) शायरी, जदीद (नयी) शायरी, तरक्की पसंद (प्रोग्रेसिव या प्रगतिवादी) शायरी। पुस्तक में एक लेख तरक्की पसंद (प्रोग्रेसिव या प्रगतिवादी) शायर सरदार जाफरी की शायरी के संबंध में है, जिसमें उन्होंने उन तमाम मसलों पर इजहारे-ख्याल किया है, जिनसे शायरी बनी है और जो सरदार जाफरी की संवेदना और इजहार का माध्यम बनते हैं।
फिराक और नयी ग़ज़ल और फिराक की संवेदना से हमारा क्या संबंध है, उस पर दो लेख पुस्तक में शामिल हैं। पुस्तक में समाहित शमीम हनफी के आलोचनात्मक आलेखों से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है मानो हम उस दौर में विचरण कर रहे हैं जहां शायरों के आपसी तनाव-खिंचाव हैं, गुटबंदी है। यहां कहीं रिवायती और नई ग़ज़ल के बीच द्वंद्व है जो बहुतों के दिल में खलबली पैदा कर रहा है। अमिक हनफी पर बात करते हुए शमीम् हनफी हमें उनके मुकाम यानी महू छावनी का नक्शा, इसके इतिहास (जहां चर्चिल आकर ठहरे), सड़कें, बाजार, बैरकें, मोटी दीवारों से बने बंगले, उपजाऊ जमीन, मौसम, झरने और साझा समाज का जिक्र करते हैं।
ईश्वर नाहिद की शायरी में एक नई चेतना की गूंज सुनाई देती है। बोलना हमारी जरूरत है, चाहे जमीन में मुंह देकर ही क्यों ना बोलना पड़े, जैसी नज्में अपना संदेश खुद हैं। यह पुस्तक क्योंकि उर्दू का हिंदी अनुवाद ना होकर निमंत्रण है, जो एकब आसानी से ग्राही है। अपने जादू में बांधे रखती है और हल्का-हल्का सुरूर पाठक की आंखों में उतरता साफ दिखाई देता है।
पुस्तक के अलग-अलग लेखों से गुजरते हुए लगा कि लिप्यांतरण की बजाय हिंदी में अनुवादित होती क्योंकि यह अपने कंटेंट में बहुत समृद्ध है। उर्दू के गंभीर पाठकों के साथ साथ हिंदी के पाठकों के लिए और अधिक ग्राह्य और उपयोगी होती। इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद को कुछ साहित्यकार एक तरह की पुनर्रचना मानते हैं तो संभव है कि शमीम् हनफी की भावना के अनुरूप अनुवादित न हो पाती।
पुस्तक : हमसफरों के दरमियां लेखक : शमीम् हनफी प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 248 मूल्य : रु. 795.