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बहते जीवन के नये संदर्भों में पुरातन बात

पुस्तक समीक्षा
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रमेश जोशी

प्रस्तुत ग्रंथ ‘हंसा करो पुरातन बात’ काशीनाथ सिंह से साक्षात्कारों का तीसरा और नवीनतम संग्रह है जिसमें 1989 से 2022 तक की अवधि को कालक्रम से समेटा गया है। इससे पहले इसी विधा में दो और संकलन आ चुके हैं- गपोड़ी से गपशप और बातें हैं बातों का क्या। यह संपादकीय सावधानी का ही परिणाम है कि इसमें पहले का कोई भी साक्षात्कार शामिल नहीं है।

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फक्कड़ हुए बिना अक्खड़ नहीं हुआ जा सकता, अक्खड़ हुए बिना बनारस को नहीं समझा जा सकता और बनारस को समझे बिना काशीनाथ को नहीं समझा जा सकता। 1986 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्ण जयंती अधिवेशन में लखनऊ में काशीनाथ की अक्खड़ता को पूरे शबाब पर देखा था जो ‘काशी का अस्सी’ में अपनी पूरी परिपक्वता में उपस्थित है।

हालांकि साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें उनके उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’ के लिए मिला लेकिन उनका कहना है कि यह अगर ‘काशी का अस्सी’ पर मिलता तो अच्छा लगता।

काशीनाथ जब भी अपनी बात करते हैं तो वह बनारस की ही बात होती है। बनारस घूम-फिर कर उनके हर साक्षात्कार में आ ही जाता है।

फिल्म में साहित्य और कला के अधिकतम रूप समाहित होते हैं। काल विशेष पर आधारित सफल फिल्में श्रेष्ठ रचनाओं पर ही बनी हैं। प्रसाद जी की चंद्रगुप्त पर ‘चाणक्य’ सीरियल, अमृता प्रीतम के उपन्यास पर ‘पिंजर’ और ‘काशी का अस्सी’ पर ‘मोहल्ला अस्सी’ जैसी सफल फिल्में बनाने वाले चंद्रप्रकाश द्विवेदी श्रेष्ठ रचना के अभाव में ‘पृथ्वीराज’ पर अच्छी फिल्म नहीं बना सके।

रवि बाबू के बाद और पहले किसी भी भारतीय को साहित्य का नोबेल नहीं मिला इसका क्या कारण हो सकता है? यही कि हम जीवन को आत्मसात‍् करने और उसके साथ बहने में संकुचा जाते हैं। ऐसे में लेखन में तथाकथित संभ्रांतता तो सुरक्षित रह जाती है लेकिन जीवन पीछे छूट जाता है। और जीवन के वास्तविक चित्रण के बिना कैसा साहित्य? ‘मोहल्ला अस्सी’ की गालियां उसे कुत्सित नहीं, विश्वसनीय बनाती हैं।

काशीनाथ सिंह को लगता है कि ‘मोहल्ला अस्सी’ में जीवंत शिव का यह औघड़ काशी विकास के नए मॉडल में सुरक्षित नहीं रह पाएगा। कामना करें कि ऐसा न हो।

पुस्तक : हंसा करो पुरातन बात संकलन-संपादन : शशि कुमार सिंह प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 295 मूल्य : रु. 895

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