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सुहानी सुबह

लघुकथा

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अंतरा करवड़े

गुस्सैल बॉस अपनी मां की तेरहवीं के बाद पहली बार ऑफ़िस आए थे। पिछले दिनों सहज हो चला ऑफ़िस, सुबह-सुबह फिर पाबंदियों के चौखट पर जाने की अनिच्छा से तैयारी कर रहा था। तभी मीता के घर से फोन आया। उसके बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी। लेकिन बॉस के केबिन में जाकर छुट्टी मांगना यानी दिन खराब करना। फिर भी सभी ने ठेलकर उसे भेजा। कोशिश करने में क्या हर्ज है! सभी सांस रोके किसी तूफान की प्रतीक्षा करने लगे।

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आश्चर्य! मीता की न केवल तीन दिन की छुट्टी मंजूर हुई, उसे कुछ रुपया भी अग्रिम मिल गया। खुशी और चिन्ता के मिले-जुले भाव लेकर वो झटपट ऑफ़िस से विदा हुई।

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फिर कमर्शियल मैनेजर ने किसी काम के बहाने बॉस को टटोलना चाहा।

‘सर, मीता को एकदम तीन दिन की छुट्टी दे दी, वो असिस्टेंट मैनेजर की जिम्मेदारी पर है।’

‘वो एक मां भी है न!’

मैनेजर ने चौंककर देखा, यह कोमल स्वर उनके गुस्सैल बॉस का ही था और वे एकटक फ्रेम में जड़ी अपनी दिवंगत मां की वात्सल्य-भरी मुस्कान को ताके जा रहे थे।

केबिन की खिड़की से रोज़ाना दिखता पीला सूरज आज कुछ ज्यादा चमकीला था।

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