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नीम का दरख़्त

कहानी
चित्रांकन संदीप जोशी
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जितनी ही कौसर के कहने की गति उतावली थी, उतनेे ही शांत धीर गति से सलीम ने बात को आगे बढ़ाया—‘बेगम, हमारे आंगन में एक नीम का दरख्त था। उसकी घनी शीतल छाया हमारे आंगन को ढकती थी, कमरों पर भी कुछ-कुछ पड़ती थी। पर हमने भर आंख आसमान देखने के लिए हमने उसे कटवा दिया। ...तो आसमान भी हमें देखने लगा। ...बेगम, अब सूरज महज जीवनदायिनी रोशनी ही नहीं देता, वह धरती की सारी नमीं सोखकर झुलसा-सा देने वाली आग भी बरसने लगा है। इसीलिए कंकड़ी बरसना शुरू हुई है...’

रात का खाना खाकर सलीम अभी बिस्तर पर पीठ, तकिये पर सिर रखकर पैर फैलाये ही थे कि खाई थाली-रखकर उनकी बेगम कौसर ने दनदानते हुए सलीम के कमरे में प्रवेश किया तो उनकी चाल की धमक से सलीम ने उनके मिज़ाज को भाप लिया। वैसे खाना खाते समय भी बेगम के तेवर से उन्हें कुछ आभास हो गया था कि निश्चित ही कोई बात बुरी लगी है, इसलिए अब वह उनके सिर पर शिकायतों का बम पटकने आ पहुंची है।

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सलीम लेटे ही लेटे बम फटने के नतीजे से अपने को सावधान कर लिया।

‘अब आप ही बताये, मैं अपनी दोनों जवान बेटियों को लेकर कहां जाऊं?’

‘क्यों भई, अपने घर में रहो। कहीं जाओ-आओगी क्याें?’

‘अगर आप ये कहते कि मैं अपनी जवान बेटियों को लेकर किसी जंगल में चली जाऊं तो भी मैं समझती कि आपकी ग़ैरत जिन्दा है। मगर मुझे तो लगता है आपकी ग़ैरत ने कफन ओढ़ लिया है और कब्र से वंचित होकर कहीं सो रही है।’

‘क्या?’ सलीम सावधान तो थे मगर इतने नुकीले व्यंग्य के लिए नहीं।

‘क्या हुआ बेगम! मेरी ग़ैरत-! आखिर बात क्या है?’

‘बात? आप बात पूछते हैं। यूं कहिए कि इस सड़ांध भरे माहौल में नाक को उंगलियों से दबाए-दबा ही दम घुटती रहे और आप चारपाई पर पैर यूं ही फैलाए लेटे रहे। हद होती है किसी बात की।’

‘अरे कुछ कहो भी तो। कुछ मालूम तो हो मुझे, बस बड़बड़ाए जा रही हो।’ सलीम के लहजे में भी कुछ तल्खी आ गयी? तो बेगम का आवेश कुछ धीमा हुआ।

‘क्या कहूं? अब हम सड़क के किनारे रह रहे हैं। ये उत्तर तरफ वाले कब से हमारे घर में ताक-झांक कर रहे हैं। पहले मिट्टी के गारे से जुड़ी हुई ईंटों की उनकी दीवार जो हमारी दीवार से लगी हुई है खासी ऊंची थी। मगर इन लोगों को जब कभी दो-चार ईंटों की ज़रूरत हुई, दीवार से उखाड़ दिए। जब कभी कोई औरत, मर्द या बच्चा छत पर जाने के लिए सीढ़ी पर चढ़ता है तो पहले वह हमारे घर में झांकता हैं। अपने घर में न जाने कौन किस वक्त किस हाल में हो, इन लोगों को जरा भी अहसास नहीं। इतना बुरा लगता है मुझे, इतना गुस्सा आता है कि क्या कहूं। मगर करूं क्या? लड़ाका फौज है उनकी।

‘भई हवा खाने चढ़तेे होंगे।’ दिनभर के थके सलीम बहस से हटते हुए बोले।

‘पहले के लोग हवा नहीं खाते थे क्या? मगर ये ढंग तो नहीं था। हर छत पर सिर से ऊंची मुंडेर होती थीं। मजाल थी कि कोई लड़की का चेहरा आता जाता देख ले। सुबह हो, शाम हो, नौजवान लड़के-लड़कियां छतों पर चढ़े नज़र आते हैं। कोई लड़का किसी लड़की को घूर रहा होता है, तो कोई लड़की किसी लड़के लिए मुस्कुरा रही होती है। छतों पर सुबह-शाम अच्छा-खासा तमाशा होता है।’

‘शर्म और लिहाज़ का दूर-दूर तक पता नहीं। लिहाज़ तो खैर अब कोई किसी का करता ही नहीं। हाथ में मोबाइल है, छतों पर बेशर्मी और बेहयाई का नाच होता है। वह जो पूरब दिशा वाली तीन मंजिला कोठी है, वहां पहले कोई नज़र नहीं आता था, यद्यपि की उसकी मुंडेर ऊंची है फिर भी किसी न किसी चीज़ पर चढ़कर लड़के और लड़कियां मुंडेर के ऊपर सिर निकाल लेते हैं और चारों ओर, पास ही नहीं दूर-दूर तक देखते रहते हैं मगर उनकी निगाहों का पहला निशाना हमारा घर होता है। घर इंसान का निजी एकांत होता है। वहां वह अपनी मर्जी से रहता है। क्या खाता है, कैसा कपड़ा पहनता है, कैसे बर्तनों में खाता है, ये सिर्फ उसे ही मालूम होना चाहिए। लेकिन अब तो लोग अपनी छत पर चढ़कर दूसरों के घरों के बर्तन-भांडे तक गिन लेते हैं।’

‘हमारी मजबूरी है? कैसी मजबूरी है? मुंह में ज़ुबान नहीं हैै क्या आपके? आप चुप क्यों रहते हैं? एतराज क्यों नहीं करते? हमारी बेटियां प्रदर्शनी में रखी हैं क्या? कौसर ने एक ही सांस में कह डाला।’

‘देखो बेगम, वजह ये है कि चारों तरफ पक्के और ऊंचे और नये मकानों का निर्माण हो रहा है। हमारे मकान में नये निर्माण का कोेई काम हुआ ही नहीं। लोग पहाड़ पर चढ़ गये और हम खुले आसमान के नीचे ही रहे। नतीजा ये निकला कि हम हर क्षण पहाड़ वालों की दृष्टि में आते रहतेे हैं।’ सलीम ने कहा।

‘मैं पूछती हूं आखिर लिहाज और अदब की भावनाएं कहां गईं। सभ्य समाज में यह क्या हो रहा है कि जंगल का कानून चल रहा है। कितना बदल गया माहौल। आप तो गूंगे बने रहेंगे? कुछ बोलेंगे नहीं, बने रहिए शरीफ।’

‘मैं शरीफ जरूर हूं, लेकिन बेहिस नहीं बेगम। कुछ इतना झुक के चले हम लहजे दुनिया में जमीं ही देखी कभी आसमां नहीं देखा।’

‘हां! ठीक कहा आपने। निःसंदेह आपने आसमान नहीं देखा। आसमान देखते तब तो यह अहसास होता कि अगर हमारे आंगन में भी एक तरफ कमरा बन जाता तोे उसकी छत पर ऊंची मुुंडेर बनवा देते। कम से कम एक तरफ से तो आड़ हो जाता। मगर आप क्यों सोचने लगे?

‘बेगम मैं आज बहुत थका हूं। अब सोना चाहता हूं। फिर बात होगी।’

दूसरे दिन सलीम आफिस में खोये-खोये से रहे। इसलिए नहीं कि बेगम ने किसी रहस्य का पर्दाफाश कर दिया था। वह स्वयं एक अनुभवी इंसान थे। इतनी उम्र यूंं ही नहीं गुजारी थी, उन्होंने। मोहल्ले के माहौल से पूरी तरह परिचित थे वह भी। लेकिन बेबसी को वह शराफत के आड़े नहीं आने देना चाहते थे। अपने घर की बेइज्जती और बेपर्दगी कब स्वीकार थी उन्हें मगर रास्ता कोई न था। जो रास्ता था वह तार-तार कर देने वाला था। वह अपने पैर को खून से रंग तो सकते थे, किन्तु उस रास्ते पर वह कभी नहीं जा सकते थे जो उन्हें बे-ईमान कर दे। बेटियों की शादी की फिक्र, परछाइयों की तरह लगी रहती, शरीफ आदमी का हर कदम परीक्षा से गुजरता है।

इधर हर दिन कौसर हालत के आवें में पकती रहीं, चैन न दिन में न रात में। क्रोध की तमतमाहट उनके चेहरे की रंगत को बदरंग बनाए जा रही थी। नाना प्रकार की कुशंकाओं-दुश्चिंताओं की उमस में जब उनकी निगाहें आसमान की ओर उठतीं तो वह सूरज, चांद सितारे नहीं, हैवानी चेहरे और उनकी आंखों में गंदी वासना के बवण्डर उठते दिखते तो, बेचैन हो उठती। मां की इस दशा का प्रभाव साधारण कपड़ों में भी हसीन बेटियाें पर भी पड़ रहा था। जब उनको मां की दिलगीरी का अहसास होता। एक दिन फिर उन्हें लगा कि उनका दम घुट जाएगा। वह क्रोध के घोड़े पर सवार दौड़ती सलीम के पास पहुंच गयी।

‘अब निश्चय ही मैं अपनी बेटियाें को लेकर किसी ऐसी जगह चली जाऊंगी जो आबाद न हो। अपने घर की बेपर्दगी अब मुझसे सहन नहीं होती। कुछ मालूम है आपको, दक्षिण-पश्चिम वाली छत से एक लड़के ने रजिया की पीठ पर कंकड़ी मारी। रजिया ने आकर मुझसे कहा। मैंने आंंगन में आकर देखा तो वह लड़का तब तक छत पर मौजूद था और बेहयाई से हंंस रहा था। अब क्या करूं मैं? लगता है इन लड़के-लड़कियों के मां-बाप भी आंखें बंद करके बैठ गये हैं। ताक-झांक करना, हमारे मजहब में कितना बड़ा गुनाह है। शर्मो-हया, लेहाजों-अदब के परिन्दे तो जैसे आबादियों से हिजरत करके किसी गुमनाम जंगल में चले गये। डर तो मुझे इस बात का है कि यह माहौल कहीं हमारी बेटियों पर अपना प्रभाव न डाले। पहले की हवाएं अब आंधियांं बन चुकी हैं। क्या पता क्या हो जाये। छतों पर इशारे होंगे, गलियों में मुलाकाते होंगी, देख लीजियेगा अब यही सब होगा। तौबा, तौबा।’ कौसर हांफने लगी। ‘ठीक कहती हो बेगम। मैं क्या करूं? मैं सबका मालिक तो नहीं? यही तो करेंगे कि खुद एहतियात करे।

‘आप कहते है खुद एहतियात बरतो। हमारी बेटी की पीठ पर कंकड़ी मारी जा रही है और आप एहतियात बरतने की बात कहते हैं। एहतियात बरतने का मतलब तो यही हुआ कि लड़कियांं आंंगन में बिल्कुल न आये। फिर घर चलेगा कैसे? कोई कहां तक एहतियात बरत सकता है।’

‘मैं तुम्हारी बातों को नहीं काटता बेगम। ठीक है तुम्हारा सोचना। हममें खुद्दारी है। कुछ सोचूंंगा।’

सलीम ने एक उभांस भरकर कहांं किन्तु वह महसूस करने लगे कि वक्त उनकी ईमानदारी और शराफत की नींव को दरकाने लगा है। वह दिन-रात उस नींव को दरकने से बचाने के लिए गुम-सुम रहने लगे। उनके भीतर एक न्यायालय बैठ गया। विपक्ष और पक्ष के वकीलों में जिरह-बहस होने लगी। प्रतिदिन तारीख सोते जागते तारीख। वह बिना खाना खाये ही दफ्तर चले गये। अफवाहें तो पंख लगाकर उड़ती हैं। किन्तु जब कोई पूछता कि यह तो आपके बगल की बात है? तो वह केवल ‘हां’ कहकर मौन साध लेते। परन्तु अपनी बेटी के ऊपर फेंकी गई कंकड़ी, कई गुना होकर उन पर बरसने लगी। यही तो था विपक्ष का मुद्दा या ईमानदारी। बार-बार लगता रहा मौन टूट जाएगा। किसी तरह समय बिताकर दफ्तर से निकल पड़े।

कौसर दिन भर बेटियों को पास बिठाये, कलेजे से लगाये-सा कमरा बंद किये पड़ी रही। बेटियां कितना भी विश्वास दिलाती, हिम्मत बंधाती रहीं। परन्तु वह नाना प्रकार की कुशंकाओं की बाढ़ में बहती रहीं। जब शौहर के आने की आहट पाई तो बाहर का दरवाजा खोलकर, लपकी। आकर, स्वयं चाय बनाकर ले आयी। सलीम ने पहले ही हाथ बढ़ा दिये और चाय लेकर बेगम के चेहरे पर निगाहें टिकाते कहे- ‘देख रहा हूं बेगम आप कुछ कहना चाह रही हैं?’

कौसर को अपने शौहर का ‘तुम’ से आप पर आनेे के मर्म का बोध नहीं हुआ। क्योंकि वह तो जब से उस घटना की बात सुनी है तभी से दिनभर भय के कुंड में बार-बार गिरती रहकर भी विजयी भाव से अपने शौहर से बात करने के लिए बेताब रही। कहने लगीं ‘मैंने कहा था न, एक दिन कुछ होकर रहेगा। आज की खबर सुुनिए, दोनों रात में किसी समय घर से भाग गये। पूरे मोहल्ले में ख़बर फैल गयी है। बड़ा गरम है माहौल। देखिए आगे क्या होता हैं?’

‘अच्छा, ऐसा हो गया।’ सलीम इस घटना से अनभिज्ञ होने का स्वांग रचकर भी शांत बने रहे।

‘वह तो होना ही था। मैं पहले ही कह चुकी थीं।’

‘अब भी कुछ करेंगे आप या नहीं?’ कौसर क्रोध से दोहरी होते हुए बोली ‘साफ-साफ’ बताइये।’

‘क्या आपनेे मेरी बात नहीं सुनी? आप कुछ बोलते क्यों नहीं?’ कौसर चिल्ला-सी पड़ी। मगर उनकी निगाह जब सलीम के चेहरे पर पड़ी तो पहले से वह खुश हुई कि मेरी बातों का असर पड़ा तो। परन्तु जब उन्होंने देखा कि सलीम की अध-बंद आंंखों से दो-दो बूंंद टपक पड़े। तो वह स्तब्ध रह गयी।

धीरे-धीरे सलीम की पलकें खुलने लगीं। उसी के साथ होंठ भी हरकत मेें आने लगा, और एक-एक शब्द भीतर से निकलने लगे ‘बेगम, जब अब्बा जान के इस दुनिया से फौत (मौत) का समय, आ खड़ा हुआ तोे, दाहिने हाथ की एक उंगली मेरी तरफ उठी। उन्होंने एक नजर मुझे देखी। फिर पलकें बंद होने लगीं और उसी के साथ उन्होंने कहा ‘बेटा, इस जिस्म में मेरी रूह है। जब कभी संकट महसूस करना, इसकी शरण लेना। वह राह दिखा-दिला देगी।’ इतना कहकर फिर सलीम ने आंखें बंदकर ली। कौसर हतप्रभ, कुछ अपराध बोध भी महसूस करने लगीं।

‘बेगम, उसी रूह की शरण तक पहुंचने के लिए मैं आज सारा दिन परेशान रहा। बुद्धि की जिरह का शोर पहुंचने ही नहीं दे रहा था। दफ्तर से निकल पड़ा। रूह ने हमारी गलती भी दिखा दी...’ सलीम इतना कहकर भी खामोश हो गये।

कौसर के लिए कौतूहल चरम पर था। ‘क्या थी हमारी गलती? हमने क्या गलत काम किया?’

शांत धीर गति से सलीम ने बात को आगे बढ़ाया—‘बेगम, हमारे आंगन में एक नीम का दरख्त था। उसकी घनी शीतल छाया हमारे आंगन को ढकती थी, कमरों पर भी कुछ-कुछ पड़ती थी। पर हमने भर आंख आसमान देखने के लिए हमने उसे कटवा दिया। ...तो आसमान भी हमें देखने लगा। ...बेगम, अब सूरज महज जीवनदायिनी रोशनी ही नहीं देता, वह धरती की सारी नमीं सोखकर झुलसा-सा देने वाली आग भी बरसने लगा है। इसीलिए कंकड़ी बरसना शुरू हुई है...’

‘नीम कौड़ियां गिरकर आंगन को गंदा कर देती थीं। इसलिए मैंने जिद की थी।’ धीरे-धीरे सिर झुकाती कौसर ने कहा।

‘चिड़िया जब सुबह अपने बच्चाें को घोसले में छोड़कर दाना चुगने लाने जाते और शाम को लेकर लौटते उनके मांं-बाप, तो दोनों समय की उनकी चहचहाहट जुदाई और मिलन के गीत को आपने नहीं सुना बेगम। उनका सुबह जगाना, खतरा देख या महसूसकर उनके चिल्लाने पर आपका ध्यान नहीं गया बेेगम... आंगन तो औरतों का होता है बेगम। घर-आंगन की भांति उन्हीं से तो होती है।’

‘तब?’ इतना ही कहकर कौसर अपने शौहर को देखने लगी।

‘तब क्या बेगम! हम नीम के दरखस्त का दो पौधा अब लगायेंगे, एक आंगन में एक बाहर। फिर चिड़िया लौट आयेगी। वैसे ही चहकेंगी जैसे हमारी बेेटियांं... कहांं है हमारी बेटियांं?

‘सांकल चढ़ाकर, मैंने उन्हें कमरे में बंद कर दिया है।’ सिर गड़ाये कौसर अटक-अटक कर बोली। सलीम वैसे ही गम्भीर आवेश में बोलते रहे—

‘बेगम वह लड़की आसमान में छत पर मोबाइल के साथ अधिक समय गुजारती थी। उसे आसमान में उड़ने का ही संस्कार मिला था। उड़ गयी। सांकल उतारकर दरवाजा खोल दें, बेगम। वे हमारी संतानें है, मैंने अपनी बेटियों को जमीन की तहजीब दी है, आसमान की नहीं।

यह कहकर सलीम कमरे के बाहर निकल आये। उनकी निगाहें दूर-दूर तक देखतीं, घूमती, सड़क के उस मोड़ पर, जो उनके घर को मुड़ता है, टिक गयी।

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