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प्रेम के क्षण

कविता
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निशी सिंह

हिमाच्छादित धवल शिखर के मध्य

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सप्तरंग धरा है जहां।

नीले वातायन तले, सुनहली धूप में

चटक सिंदूरी रंग के टेसू खिले-खिले।

रूपहली चांदनी के आंचल पर

टांक देती श्यामला सांझ सितारे।

दूर क्षितिज के भाल पर

सजा था भोर का तारा।

कुछ कहे-अनकहे,

कुछ बुझे-अनबुझे सवाल लिए

मिली थी तुमसे प्रेम की सौगात लिए।

अंकुर फूटा था, चटकी थी कली-कली,

कालचक्र के साथ-साथ

बरस बन गए कितने दिन,

पौधे अब दरख्त बन गए।

प्रिये, क्या उन क्षणों की

पुनरावृत्ति संभव नहीं?

वो क्षण, जब मुखरित हुआ था मौन भी,

प्रणय-सत सराबोर वह क्षण,

सृजना का क्षण—।

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