रमेश नैयर
हिंदी फिल्मों की एक सदी की विकास यात्रा को सतीश चोपड़ा ने सहज, सरल और रोचक शैली में दर्ज किया है। उन्होंने प्रामाणिकता के साथ हिंदी फिल्मों की महान विभूतियों का चित्रण मात्र पौने दो सौ पृष्ठों में सहेज दिया है। युवा पाठकों को पुरानी हिंदी फिल्मों का तिलिस्म चमत्कृत करता है। उनका परिचय उस सुनहरे अतीत से कराता है, जिसे जिज्ञासु पाठकों को जानना अच्छा लगेगा। ऐतिहासिक महत्व के अनेक रोचक प्रसंगों से गुजरते हुए पाठकों की मुलाकात उन हस्तियों से होती है, जिनका मोहजाल बांध लेता है। एक उदाहारण, ‘सन् 1940 में महात्मा गांधी शिमला गये… बहुत कम लोग उनकी सभा में आए, क्योंकि उस दिन बहुत सारे लोग मास्टर मदन की संगीत सभा में गए हुए थे।’
विलक्षण प्रतिभा वाले मास्टर मदन यह दुनिया 5 जुलाई, 1942 को छोड़ गए। उनकी असामयिक मृत्यु ने एक खलबली मचा दी। उनके मुरीदों को शक था कि उन्हें किसी चीज में ज़हर दे दिया गया था। हिंदुस्तानी फिल्मों के स्वर्ण युग के अजर-अमर गायक कुंदनलाल सहगल पर विस्तार से आत्मीय जानकारी इस पुस्तक में मिलती है। सहगल को श्रद्धांजलि देते हुए नौशाद साहब ने कहा था, ‘मुक्कमल नगमों की कसम आज भी जिंदा है वो सहगल।’ ‘…जब वे नैनहीन नैनहीन को राह दिखा प्रभु, चहुं ओर मेरे घोर अंधेरा’ गाते हैं तो यूं लगता है कि वे श्रोताओं को साक्षात दिखा रहे हों कि अंधापन क्या होता है।’
सहगल साहब के साथ ही लेखक ने महान शास्त्रीय गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का वर्णन बड़ी ईमानदारी के साथ किया है। एक उदाहारण खां साहब की साफगोई का, ‘खुद को संगीत में एम.ए., पीएचडी और निष्णातज्ञाता बताने वाले एक पत्रकार को सुनने के बाद खां साहब ने पूछा, ‘मियां कभी रोए हो, कभी मुहब्बत की है। …मियां, चाय-वाय पियो और जाओ, तुम्हें मौसिकी से क्या लेना-देना।’
इस वृत्तांत को पढ़ते हुए 1960 के दशक का एक प्रसंग याद आ गया। रायपुर में लता मंगेशकर के अभिनंदन में कई संगीतविदों ने स्तुतिपूर्ण लंबे व्याख्यान दिये। अंत में खां साहब की बारी आई तो उन्होंने कहा, ‘बेटी, तेरे गले से तो खुदा गाता है।’ कुछ पल सभी स्तब्ध, फिर आयोजन-स्थल श्रोताओं की तालियों से काफी देर तक गूंजता रहा। अभिभूत लता जी का सिर श्रद्धा से झुक गया।
पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते कई बार मन में टीस सी उठती है। संगीतकार हुस्नलाल-भगतराम ने खूब शोहरत कमाई। पर अनजान व्यक्ति के रूप में दुनिया से विदा हो गए। उनका दिलकश संगीत जेहन में गूंजता रहेगा ‘तन्हाइयों में तुम्हारी याद आएगी।’
पुस्तक में बार-बार सहगल साहब का सम्मोहन छलक उठता है। अंतिम प्रसंग सहगल 26 दिसम्बर, 1946 को फ्रंटियर मेल से सुबह 4:00 बजे जालंधर पहुंचे और यह उनकी अंतिम यात्रा सिद्ध हुई। कड़ी सर्दी का मौसम था वे एक बिल्कुल नया सूट पहने हुए थे। उन्होंने एक भिखारी को ठंड से ठिठुरते देखा। अपना कोट उतारा और उसमें रखे 1800 रुपयों सहित उसे दे दिया।
पुस्तक पूरी सदी के अजर अमर गीतों की मिसरी कानों में घोलती है। 63वें नेशनल फिल्म अवार्ड्स की विजेता हिंदी फिल्मों की यादों को ताजा कराती यह पुस्तक रुचिकर है। सिनेमा-प्रेमी इसे सहेज कर रखना चाहेंगे। सिनेमा समीक्षकों के लिए इसमें अनेक महत्वपूर्ण संदर्भ हैं।
पुस्तक : हिंदी सिनेमा की भूली बिसरी विभूतियां प्रकाशक : एलजी पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर लेखक : सतीश चोपड़ा, अनुवादक : प्रोमिला अरोड़ा पृष्ठ : 175, मूल्य : रु.400.