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गोश्त

बांग्लादेशी कहानी
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चित्रांकन : संदीप जोशी
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दो घंटे बाद ही वह ऑटोरिक्शा के साथ सवारी ढोने लग जाता है। तीन किराया मिलने पर उसके आनंद की सीमा नहीं रहती। अब न पांव दुख रहा है और न देह में कहीं कसमसाहट। चेहरे की उदासी भी पिघल गई है। वह एक गीत का मुखड़ा गुनगुना उठता है, ‘तुम्हें चाहता हूं, बस तुम्हें चाहता हूं। जीवन में और कुछ मिले या न मिले...।’ शाम को हमेशा की तरह कारवां बाजार पहुंचता है मंताज़। गांजा पीता है और ऑटो लेकर लौट आता है। सवारियों की देह में गोश्त कम हो या ज्यादा, अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

अहमद खान हीरक

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कारवां बाजार के सब्जी के खेतों के पिछवाड़े की जो जगह पूरी तरह समाप्त हो चुकी है, वहीं से शुरू होती है रेल लाइन। दोपहर बाद से ही लाइन पर कुछ लोगों की अस्पष्ट आकृतियां आती-जाती दिखने लगती हैं। लोगों की एक झलक पाते ही वे तृष्णाभरी नज़रों से देखते हुए आवाज देते हैं, ‘चाहिए?’

बेशक, जिन्हें चाहिए होता है, वे कोई सवाल खड़ा नहीं करते। आते ही 20 रुपये आगे बढ़ा देते हैं। कागज में लिपटी पुड़िया तेजी से हस्तांतरित हो जाती है। अधिक हुआ तो खरीददार तसल्ली कर लेना चाहता है, ‘बढ़िया है न?’

वे आश्वस्त करते हैं, ‘एक नंबर का माल है।’

भले माल जैसा भी हो, मंताज़ को हर शाम यहां आना ही पड़ता है। ट्रकों के बीच से होकर अपने टूटे-फूटे रिक्शे को अनिच्छा से खींचते हुए उसके पांव पैडल पर तेजी से चलने लगते हैं। जेब में जैसे 30, 50 और 60 रुपये समाते रहते हैं, उसी तरह सारे दिन की पूरी शक्ति, इच्छा और सपने पैडल से होकर हवा में घुलते चले जाते हैं। कवि तो पहले ही कह गए हैं कि मनुष्य हवा का एक वाहन है।

दोपहर के समय मंताज़ अनामिका पेट्रोल पंप के बगल में स्थित छपरा होटल में भोजन करता है। आलू का चोखा, पनियल दाल और भात, तीस रुपये में। अगर नूरजा बेगम का मूड ठीक रहा तो वह इन पैसों में थोड़ी-सी लाल साग भी दे देती है। लाल साग को चावल में मिलाते समय उसे अपना बचपन याद आ जाता है। उसकी मां अकीमुन बीबी इसी तरह उसे मिला-मिलाकर भात परोसती थी। उसने केवल तीन वर्षों तक उसे खिलाया था और फिर वह बीमार होकर मर गई थी। वे तीन वर्ष कितने मजे के बीते थे। आज तैंतीस साल बाद भी, वे तीन वर्ष रूपहली यादों की तरह मन में तैरते रहते हैं। आह, वे भी क्या दिन थे!

अक्सर दोपहर के खाने के समय ही उसे यह हताशा घेरती है। इसी समय उसे थोड़ा अवकाश मिलता है। तब नूरजा बेगम से दो-चार बातें भी हो जाती हैं। उस दिन भी उस समय टीवी पर हिन्दी फिल्म जारी थी। आलिया नाम की एक नायिका बातों-बातों में खूब नाचती है। देखकर मंताज़ को हंसी आती है- ‘ये नायिकाएं... इनकी देह में पक्षियों की तरह गोश्त तक नहीं होता। सिर्फ हड्डी और हड्डी।’

नूरजा बेगम कहती है, ‘यह आज की सफल नायिका है। सभी नायिकाएं आजकल ऐसी ही होती हैं। गोश्त नहीं होता उनमें।’

मंताज़ मुंह में भात ठूंसते हुए तिरछी नज़रों से नूरजा बेगम की ओर देखता है। इस कदर पुष्ट देह मानो फुटबाल हो। पसीने से भीगी गर्दन। नाक में चमकता नकफूल, कानों में सोने के असली झूमके। ढका आंचल। क्या नहीं है उसमें। कमर थामनी हो तो दोनों हाथों की जरूरत पड़ेगी।

‘भात दूं क्या?’

मंताज़ चौंकता है और मूर्खों की तरह हंसने हुए कहता है, ‘आलिया से कहीं अधिक तुम नायिका लगती हो।’

नूरजा को बात खटक गई। भात से छोटी कड़छी निकालकर उसकी ओर दे मारा और वह जाकर सीधे मंताज़ के माथे पर लगा। अपने जूठे हाथों से वह माथा सहलाने लग पड़ा। नूरजा बेगम भी दौड़ी चली आई। उसके पसीने की गंध मंताज़ को बुरी नहीं लगी परंतु कुछ तो था जो उसे बुरा लगा। सारा दिन रिक्शा खींचने के बाद उसका सिर्फ पांव ही नहीं, सारा शरीर दुखता है। मानो शरीर में दर्द का जहर फैल गया हो। उस दर्द और जहर से निजात पाने के लिए वह नशा करता है। दो रुपये की सिगरेट का कच्चा तंबाकू फेंककर उसमें गांजे के सूखे पत्ते भरता है और जब उसे आग से सुलगाता है, तब धुआं उसके खून में समाता चला जाता है। उस समय मंताज़ को अहसास होता है कि वह अभी जीवित है। फिर चारों ओर देखते हुए उसे दुनियाभर के बारे में सोचना बहुत अच्छा लगता है। कड़छी फेंककर मारने के बाद नूरजा बेगम आकर उससे लिपटकर रोई थी और वह उसके आंचल में सिर छुपाये नशीले गंध से पगला गया था।

फिर उस दिन के बाद से ही शुरू हुआ एक लफड़ा। अब आलिफ़ा की ओर ठीक तरह देख नहीं पाता है मंताज़, हालांकि वह कमसिन है। पंद्रह या फिर सोलह साल की होगी। देह बांस के पत्ते की तरह चिकनी है। तेज आंधी आए तो उड़कर सीधे मैमन सिंह (बांग्लादेश का एक शहर) की झोपड़ी में जा गिरे। सौभाग्य से उनकी बस्ती दस मंजिल बिल्डिंग की ओट में है। सो आंधी उससे टकराकर लौट जाती है। सात माह पहले जब उसने निकाह में उसे कबूला था, तब गांव की भाभी ने कहा था, ‘चिंता मत करो मंताज़ मियां, लड़की की नाक सुंदर है, आंखें सुंदर... देह में गोश्त नहीं परंतु गोश्त आने में दो महीने से भी अधिक नहीं लगेंगे। ब्याह का पानी पड़ते ही लड़कियों की देह में गोश्त आने में समय नहीं लगता।’

दो महीने तो कब के गुजर गए। आलिफ़ा की देह पर गोश्त नहीं चढ़ा तो नहीं चढ़ा। उस पर उसका मुखड़ा सूखकर और भी चमगीदड़ी की तरह हो गया। उसके ओर देखकर मंताज़ अक्सर सोचता है, इसे ब्याह कर लाने की जरूरत ही क्या थी? इससे अच्छा तो नूरजा बेगम के यहां भात खाना ही परम सौभाग्य है।

नूरजा बेगम सिर्फ भात ही नहीं खिलाती, कई तरह की अक्लमंद भरी बातें करती और समझाती है। उससे पहले वह इस शहर में आई है। मंताज़ से दो-तीन साल बड़ी ही होगी। उसकी थाली में लाल साग डालते हुए कहती है, ‘तुम्हारी देह तो यह मार झेल नहीं पा रही। कुछ बढ़िया खाया करो।’

मंताज़ हंसता है। उसके पीले दांत बाहर निकल आते हैं, ‘बढ़िया अब कहां मिलेगा? जैसा मिल रहा है, खा रहा हूं।’

‘छोड़ो मियां, कभी आईने में अपनी शक्ल देखी है? हेरोइन तो नहीं खाते?’

‘तौबा-तौबा मैं उसके करीब भी नहीं जाता।’

‘गांजा तो पीते हो। किसी दिन वह भी शुरू कर दोगे। तब मिट्टी में मिलने में अधिक समय नहीं लगेगा।’

मंताज़ को यह बात चुभती है। अपनी मां को उसने मिट्टी में मिलते देखा है। फिर बाप और चाचा को भी। वह मिट्टी में अभी मिलना नहीं चाहता।

‘क्या करूं, रिक्शा खींचने में कष्ट होता है। किसी-किसी में इतना गोश्त होता है कि खींचते समय कलेजा बाहर आने को होता है।’

‘तो फिर खींचते ही क्यों हो?’

नूरजा बेगम जाकर पंखे की नीचे खड़ी हो जाती है। उसकी छाती-गर्दन पसीने से चिपचिपे हो उठे हैं। मंताज़ तक पसीने की गंध पहुंचती है। वह इत्मीनान से उसे सांसों में भरते हुए कहता है, ‘और करूं भी क्या?... अपने होटल में रख लो। यहीं नौकरी कर लेता हूं।’

‘नौकरी नहीं, एक सलाह देती हूं। इस रिक्शे को छोड़ो, ऑटो चलाओ। उस पर सिर्फ बैठना भर है। वह खुद इंजन से चलेगा।’

मंताज़ सुनकर हंसता है, ‘ऑटो चला पाना क्या इतना आसान है? सब जगह जा नहीं सकते। जाने पर टिकट लगता है। उसके लिए अलग से पैसे चुकाओ। हर महीने चंदा दो। इतना झमेला कौन करे?’

नूरजा भात की कड़छी लिए उसके पास आती है। ‘वजह यह नहीं, नए काम के प्रति तुममें डर है बस।’

मंताज़ एकटक उसे देखता है क्योंकि नूरजा बेगम उस समय एक कटु मुस्कान बिखेर रही होती है। वह सोच में पड़ गया। क्या सचमुच उसे नए काम से डर लगता है? क्या इसी कारण उस दिन जब नूरजा ने उसे बाहों में भरा था तो वह उसे छू तक नहीं पाया था?

आलिफ़ा नींद में उसके करीब आती है, मानो हड्डी से हड्डी टकराई हो। मंताज़ का मन उचट जाता है। वह उसे परे हटाता हुआ गरियाता है और उठकर बैठ जाता है। एक बीड़ी सुलगाता है। पांव में दर्द है, देह से मानो गोश्त खींचा जा रहा हो। आखिरकार उसने एक निर्णय ले ही लिया।

नूरजा बेगम का परिचित है रइसू मियां, वह यह जानता था, परंतु परिचय किस तरह का है, इस बारे में वह कुछ नहीं जानता। गैरेज पर पहुंचते ही आवभगत होने लगी।

‘मंताज़ मियां, आखिर तुम आ ही गए। बैठो, चाय पीओगे या नीबू का शरबत? ...अरे ओ मिलान्या, जा चाय ले आ।’ रइसू मियां ने किसी को आवाज दी।

मंताज़ ने कहा, ‘दरअसल नूरजा बेगम ने कहा था।’

रइसू हंसता है, ‘हां, उसने कहा था तुम्हारे बारे में। अच्छा किया तुमने रिक्शा छोड़ दिया। यह ऑटो ले जाओ।’ उसने एक चमचमाती ऑटो की ओर इशारा किया।

देखकर मंताज़ का दिल जोर से धड़क उठा। कहां वह टूटा-पुराना रिक्शा और कहां यह नया चमकता ऑटो?

रइसू पूछता है, ‘चला सकते हो?’

मंताज़ कुछ बोल नहीं पाता। रइसू हंसता है, ‘चिंता की कोई बात नहीं। तैरना, रिक्शा और रात के काम... जो एक बार सीख लेता है, वह कभी नहीं भूलता है।’

मंताज़ ऑटो की चाभी लेकर उस पर सवार हो जाता है। रइसू कहता है, ‘इसमें कष्ट कम है, सो अधिक काम कर पाओगे, परंतु दो सौ रुपये प्रतिदिन पर नहीं होगा।’

‘तो फिर?’

‘सबसे साढ़े तीन सौ लेता हूं, परंतु तुम नूरजा पंछी के जानकार हो, इसलिए तीन सौ दे देना।’

मंताज़ ऑटो लेकर गैरेज के बाहर निकल आता है। रास्ते में ख्याल आता है कि उसने रइसू के यहां चाय नहीं पी। चाय आई भी कहां? चालू आदमी है वह।

दो घंटे बाद ही वह ऑटोरिक्शा के साथ सवारी ढोने लग जाता है। तीन किराया मिलने पर उसके आनंद की सीमा नहीं रहती। अब न पांव दुख रहा है और न देह में कहीं कसमसाहट। चेहरे की उदासी भी पिघल गई है। वह एक गीत का मुखड़ा गुनगुना उठता है, ‘तुम्हें चाहता हूं, बस तुम्हें चाहता हूं। जीवन में और कुछ मिले या न मिले...।’

शाम को हमेशा की तरह कारवां बाजार पहुंचता है मंताज़। गांजा पीता है और ऑटो लेकर लौट आता है। सवारियों की देह में गोश्त कम हो या ज्यादा, अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

तीन सप्ताह बाद नूरजा बेगम उससे कहती है, ‘तुम्हारी खुराक पहले से घट गई है, गौर किया कभी? पहले तीन थाल खाते थे, अब दो ही थाल भात खाते हो।’

मंताज़ इतना भर कह पाता है, ‘देह में अब दर्द नहीं, पांव में दबाव नहीं।’

नूरजा बेगम हंसती है। उसकी थुलथुली देह कांप उठती है। मंताज़ को आज पहली बार महसूस हुआ कि उसकी देह में कितना अधिक गोश्त है। आज उसके पसीने की गंध से उसे अच्छी नहीं लगी। नूरजा उसकी ओर बढ़ती है तो वह उसे भी पास आने से रोक देता है।

उस रात को वह अपनी बीवी आलिफ़ा को स्नेह देता है। अब वह उसे हिरोइन लगने लगती है।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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