फूलचंद मानव
हिंदी कविता में तीन-चार पीढि़यां सृजनरत हैं। गीत, कविता आदि के द्वारा अपने अनुभवों के आधार पर समाज में काव्यकला का प्रदर्शन किया जा रहा है। कविता, विचार और मन को पाठक तक ले जाने का मूर्त-अमूर्त माध्यम कहलाता है। यहां शिद्दत के साथ रचनाकार अध्ययन के पश्चात और अनुभवों को आत्मसात करके अभिव्यक्ति देने की चेष्टा में रहता है। जल्दी-जल्दी या सहजभाव से जो कुछ रचा या कहा जा रहा है उसमें कहीं-कहीं कविता भी नजर आती है।
कृष्ण कल्पित को हम उसके अध्ययन काल से पढ़ते आ रहे हैं। छात्र जीवन की सीढ़ी से प्रगति करता हुआ कवि जिस सीढ़ी पर खड़ा है, वहां से सृजनधारा स्वत: प्रस्फुटित हो रही है। भाषा, शिल्प या शैली में अपना मुहावरा देकर रचनाकार ने एहसास को कविता का लक्ष्य बनाया है। छोटी-छोटी उक्तियों में गहरी बात कहना कृष्ण कल्पित को भा रहा है। यथा उपन्यास फुटपाथ पर पैदल चलने की कला है, या ‘जब तक जीवन है तब तक बची रहती है आस, बचा रहता अधूरा उपन्यास!’ रेख़्ते के बीज की कविताएं नयी परिभाषा बनाती और उन्हें बिगाड़ती भी हैं। बनती बिगड़ती भाषा में गद्य-पद्य का मुकुट जहां सामने आता है वहीं से अनुभव की तिजोरी का माल प्रकट होने लगता है। भाषा का कवि कृष्ण कल्पित इन तमाम कविताओं में अपनी ही नहीं समाज और संसार की कथा भी कह रहा है।
एकल कविता पाठ, कापीराइट से लेकर गद्य की ‘गुरवत उर्फ छंदों को देश निकाला’ तक अनेक कल्पित, अकल्पित दृष्टांत हैंैं। इन्हीं से आलोचक या संपादक चमत्कृत न भी हों कवि के विश्वास और एहसास का आनंद लेने लगते हैं। अदृश्य हाथ की पंक्तियां हैं- ‘जब भी गिरने गिरने को हुआ, किसी अदृश्य हाथ ने मुझे थाम लिया। गुरुत्वाकर्षण नियम बचा हुआ था, लेकिन मनुष्य धर्म भी बचा हुआ था।’ कृष्ण कल्पित की सन् 1990 से 2020 तक की 30 साल की कवि यात्रा सम्मोहित ही नहीं करती चुनौती भी दे रही है। बड़े छोटे कवियों को नाम लेकर समेटना या लपेटना कृष्ण कल्पित का निजी मुहावरा है।
आज कविता में उधेड़ बुन के साथ जो जैसा रचा या कहा जा रहा है, उसमें संशय की स्थिति उभरती है लेकिन रेख़्ते के बीज संग्रह की कविताएं कृष्ण कल्पित को राजस्थान का ही नहीं हिंदी का महत्वपूर्ण कवि सिद्ध कर रही है।
पुस्तक : रेख़्ते के बीज और अन्य कविताए ं रचनाकार : कृष्ण कल्पित प्रकाशक : राजकमल पेपर बैक्स, दिल्ली पृष्ठ : 214 मूल्य : रु. 250.