आलोक यात्री
‘जीते जी इलाहाबाद’ ममता कालिया की संस्मरणात्मक पुस्तक है। किसी शहर में रहना, बसना और रचना क्या होता है, इसकी मिसाल है ‘जीते जी इलाहाबाद।’ दिग्गज रचनाकारों के संस्मरणों की फेहरिस्त काफी लंबी है, लेकिन संस्मरणों की जमीन पर ‘जीते जी इलाहाबाद’ को निसंदेह माइलस्टोन कहा जा सकता है। लेखिका खुद सवाल करती हैं— ‘निरुपाएता के चलते सन् 2003 के नवंबर में हमने इलाहाबाद छोड़ दिया। क्या महज रेलगाड़ी में बैठना ही शहर छोड़ देना होता है।’ किसी शहर पर लोगों के फिदा होने के मामले में लखनऊ अव्वल था। यूं तो तमाम प्राचीन भारतीय शहर कई तरह की विशिष्टता और विविधता समेटे हुए हैं। लेकिन ‘जीते जी इलाहाबाद’ पढ़ते हुए दिमाग के पटल पर एक चलचित्र-सा चलता रहता है, जो न सिर्फ इलाहाबाद की गलियों, सड़कों, मोहल्लों को उघाड़ता रहता है बल्कि पुस्तक में वर्णित शख्सियतों से प्रगाढ़ परिचय में बांधता चलता है।
पुस्तक के प्रारंभ में ममता कालिया कहती हैं, ‘शहर पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ।’ पर पुस्तक पढ़ते हुए लगता है कि वह समूचे इलाहाबाद को पुड़िया में साथ बांध लाई हैं। उन्होंने 6 अध्याय में पुस्तक को समेटा है। यह पुस्तक इशारा करती है कि उन्होंने ठहरे हुए इलाहाबाद से बदलते हुए इलाहाबाद को करीब से देखा है। ‘जीते जी इलाहाबाद’ हमारे सामने एक शहर को परत-दर-परत खोलता है। वे कहती हैं, ‘किसी शहर की शख्सियत महज पढ़े-लिखे लोगों, विद्यालय और विश्वविद्यालय से नहीं बनती। उसकी नीव में पुराने मोहल्ले और चौबारे होते हैं। जहां दादा, नाना, दादी, परदादी किस्म के दुर्लभ पात्रों ने निवास किया। इलाहाबाद में पूरनिया मोहल्लों और गलियों की भरमार है।’
पूरी पुस्तक में वृत्तांत और शब्दचित्रों का रोचक सामंजस्य है। यथा- ‘तुकांत हो, अतुकांत हो, उमाकांत हो, रविकांत हो, वह यादों में बस जाता है।’ एक जगह वह रविंद्र कालिया से मुठभेड़ का जिक्र कुछ यूं करती हैं- ‘रवि ने एक नजर मुझे देखा, लंबी सांस भरी और कहा मनुष्य से निराश होकर ही इंसान प्रकृति की ओर मुड़ता है। रवि वृश्चिक की तरह अचानक वार करते। उनकी जन्म राशि वृश्चिक थी। गनीमत यह है कि मेरी जन्म राशि भी वृश्चिक है। दंश का अंश हम दोनों में समान था। कभी मैं तुरंत हिसाब चुकता कर देती, कभी भविष्य के लिए डंक जेब में डाल रखती।’ ममता कालिया का खुद के लिए यह कथन ‘कभी डंक जेब में डाल रखती’ उनकी बेबाकी और ईमानदारी की बानगी है।
पुस्तक में तकरीबन डेढ़ सौ लोगों का जिक्र भर नहीं है, बल्कि उस दौर में उनके परिचय के दायरे में आए हर छोटे-बड़े व्यक्ति की मुकम्मल दास्तान है। पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें पठनीयता और विश्वसनीयता समान रूप से बरकरार है।
पुस्तक : जीते जी इलाहाबाद लेखिका : ममता कालिया प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 191 मूल्य : रु. 199.