लेह से करीब 225 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 14272 फुट की ऊंचाई पर स्थित करिश्माई झील पेंगोंग त्सो की छटा देखते ही बनती है। इसकी खूबसूरती ने सदियों से जहां देश-विदेश के वैज्ञानिकों को अपनी ओर आकर्षित किया, वहीं फिल्मों में यहां की लोकेशन आते ही सैलानियों की आवाजाही बहुत बढ़ गयी, लेकिन फिलवक्त चीन के साथ विवाद के कारण यह झील सुर्खियों में है क्योंकि इसी झील के पास से शुरू हुआ था तनाव। सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण इस करिश्माई झील का इतिहास-भूगोल बता रहे हैं पुष्परंजन
फिल्म थ्री इडियट्स 2009 में रिलीज हुई थी। उसकी एक लोकेशन थी, लद्दाख की पेंगोंग त्सो झील। बाद में यह स्थान इतना लोकप्रिय हुआ कि इसे निहारने के लिए लोगों का रेला लग गया। इससे पहले 2006 में अंग्रेजी फ़िल्म द फाॅल और 2008 में समीर कार्निक की फ़िल्म ‘हीरोस’ के कुछ शाॅट्स पेंगोंग की लोकेशन पर लिये गये थे। थ्री इडियट्स से 11 साल पहले मणिरत्नम ने फ़िल्म ‘तू ही तू सतरंगी रे’ गाने का कुछ हिस्सा पेंगोंग झील पर फिल्माया था। उस समय किसी ने जानने की इच्छा नहीं जताई कि यह कौन सी लोकेशन है? मुमकिन है, मणिरत्नम के तीनेक मिनट का शाॅट लोगों की जिज्ञासा का केंद्र नहीं बना हो।
मगर, थ्री इडियट्स के बहाने लद्दाख टूरिज्म ने भी पेंगोंग त्सो झील की मार्केटिंग खूब की। अस्तु, जिन पर्यटकों की इच्छा आमिर ख़ान और करीना कपूर बनने की होती है, इस लोकेशन पर ज़रूर जाते हैं। पेंगोंग की इसी लोकेशन पर लाल, नीली, हरी प्लास्टिक वाले तीन बकेट चेयर, पीले रंग का स्कूटर, फोटो अपॉरचुनिटी के वास्ते ज़रूर रखे मिलते हैं। सौ रुपये दीजिए, थोड़ी देर के वास्ते आमिर ख़ान और करीना कपूर बन जाइये। मगर, उससे पहले पेंगोंग के लिए जाने का प्लान लेह से ही करना होता है। पेंगोंग नियंत्रण रेखा से लगा इलाका है, यहां क़दम रखने के लिए इनर परमिट चाहिए, जिसके लिए लेह स्थित डीसी ऑफिस अधिकृत है। लेह के जिस होटल में आप ठहरते हैं, उनके लोग पहले से परमिट का इंतज़ाम कुछ अतिरिक्त शुल्क लेकर कर देते हैं, या फिर लेह में बैठे टूरिस्ट एजेंट। खुद जाकर कराना हो, तो 500 रुपये और रोज़ का 20 रुपये अतिरिक्त शुल्क देना होता है। यानी, तीन दिन के लिए 560 रुपये। लेह के डीसी ऑफिस में दो-एक घंटे में परमिट वाला काम हो जाता है। जम्मू-कश्मीर के जो निवासी हैं, अथवा 12 साल से कम उम्र के बच्चों के वास्ते इनर लाइन परमिट (आईएलपी) या लद्दाख प्रोटेक्टेड एरिया परमिट (पीएपी) की ज़रूरत नहीं होती।
लेह का डीसी आॅफिस अफगानिस्तान, म्यांमार, चीन, पाकिस्तान और श्रीलंका के नागरिकों को आईएलपी देने के लिए अधिकृत नहीं है। उसके लिए दिल्ली में गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी होती है। डिप्लोमेटिक पासपोर्ट होल्डर विदेशी या यूएन के सदस्यों को पेंगोंग जाना हो तो उन्हें विदेश मंत्रालय ‘विशेष इनर लाइन परमिट‘ जारी करता है। तो ध्यान रहे, पेंगोंग, कोई ख़ाला का घर नहीं कि मुंह उठाये पहुंच गये।
थ्री ईडियट लोकेशन : यहां फोटो जरूर खिंचाते हैं सैलानी।
छटा निराली : सुबह हो या शाम
गूगल मैप से दूरी देखियेगा, पेंगोंग लेह से 224.6 किलोमीटर बताता है। सुबह आठ-नौ बजे निकलें, मगर यह नहीं भूलें कि जितने दिन पेंगोंग रहना है, उसके मुताबिक खाने-पीने की वस्तुएं लेह से ही रख लें। रास्ते में शे मठ, छांगला पास, दुरबुक, लुकुंग को देखते-निहारते पेंगोंग पहुंचते-पहुंचते सूर्यास्त का समय लगभग हो जाता है। कुछ पर्यटक नुब्रा घाटी से वारी ला दर्रा होते हुए पेंगोंग निकल जाते हैं। यह रास्ता थोड़ा लंबा, 274 किलोमीटर है। अगर आप चार चक्के वाली गाड़ी से हैं, डीज़ल-पेट्रोल से टंकी फुल करा लीजिए। मोटर साइकिल सवारों को भी अलग से स्टाॅक लेकर चलने की सलाह दी जाती है। लेह और नुब्रा घाटी के टैक्सी वाले जानते हैं, उन्हें क्या करना होता है, वे उसके अनुरूप इंतज़ाम रखते हैं। पेंगोंग पहुंचने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट राम भरोसे है। इसलिए सारा भरोसा प्राइवेट टैक्सी आॅपरेटरों पर आकर टिक जाता है।
समुद्र तल से 14 हजार 272 फुट की ऊंचाई पर ऐसा कुदरती करिश्मा दुनिया की कम ही लोकेशन पर दिखता है। शायद इससे अभिभूत होकर तिब्बतियों ने इसका नाम पेंगोंग (जादुई) त्सो यानी ‘झील‘ रखा। हल्का खारा जल होने के बावज़ूद, नवंबर से मार्च तक पेंगोंग का पानी ठोस बर्फ में बदल जाता है। ऐसी फिजां में जाने का अवसर मिले तो आप झील पर चल सकते हैं। घनघोर सर्दियों में यहां आइस स्केटिंग खेली जाती है। उस समय माइनस 15 से माइनस 50 डिग्री तक का टेंप्रेचर पेंगोंग में रहता है। मई से सितंबर के बीच पेंगोंग का टूरिस्ट सीजन माना जाता है।
याक यहां के लोगों के जीवन में अहम स्थान रखता है। याक देखने का सिलसिला चुशूल से शुरू हो जाता है।
ग्लेशियर से बनी झील, हुए कई शोध
पेंगोंग, ग्लेशियर से उत्पन्न झील है। इस बारे में यूनिवर्सिटी आॅफ शिकागो प्रेस जर्नल्स ने अक्तूबर-नवंबर 1906 के अंक में एक शोध पत्र प्रकाशित किया था। पेंगोंग के चारों तरफ जितने भी ग्लेशियर हैं, उनका ब्योरा एल्सवर्थ हंटिग्टन ने अपने शोधपत्र में दिया था। सवा सौ साल पुराने दस्तावेज़ी प्रमाण से इसका संकेत मिलता है कि हिमालय के इस सामरिक महत्व वाले क्षेत्र में अमेरिकन दिलचस्पी कितनी रही है। जैव विविधता पर काम करने वाले ब्रिटिश जल विज्ञानी हटचिंसन ने 1933 से 1936 के बीच पेंगोंग के पानी पर काफी शोध किया, जो उस समय के जर्नल्स में प्रकाशित हुए। बाद के दिनों में भी इस इलाके में जैव विविधता पर काफी शोध हुए, जिससे एक बात साफ हुई कि छांगथांग पठार के बीच कटोरे की तरह निकल आयी पेंगोंग झील के चारों ओर ग्लेशियर का पानी उसकी जल संपदा को बनाये रखते हैं। छांगथांग पठार में फिरोज़ा पत्थर बहुतायत में मिलते हैं, जिसे लद्दाखी अपने आभूषणों, टोपी और मूर्तिकला में इस्तेमाल करते हैं। छांगथांग पठार 1600 किलोमीटर तक के विस्तार में है, जिसका बड़ा हिस्सा उत्तर-पश्चिम तिब्बत के छिंगहाई तक फैला हुआ है। छांगथांग पठार के गर्भ से न सिर्फ़ पेंगोंग झील की उत्पत्ति हुई है, अपितु दो और झील हैं। 26 किलोमीटर लंबाई वाली त्सो-मोरिरी, और 22 किलोमीटर लंबी त्सोकर भी छांगथांग पठार ने हमें प्रदान की है। ये दोनों लद्दाख में हैं। 134 किलोमीटर लंबी पेंगोंग झील की अधिकतम चैड़ाई पांच किलोमीटर है। इसका 45 किलोमीटर पश्चिमी हिस्सा भारत के नियंत्रण में है, और बाक़ी 89 किलोमीटर तिब्बत में।
इतिहास का झरोखा : लद्दाख के राजा सेन्गे नामग्याल (1616-1623) के समय निर्मित लेह बाजार।
धार्मिक मतभेद से हुआ बंटवारा : यह भी एक तथ्य है कि भूटान तिब्बत से युद्ध में एक बार नहीं, तीन-तीन बार विजयी रहा है। आखि़री युद्ध 1616 में बौद्ध मत ‘त्सा यिग’ को मानने वाले न्गवानाग नामग्याल से तिब्बत के तत्कालीन शासक, चौथे दलाई लामा योन्टेन ग्यात्सो से हुआ था। चौथे दलाई लामा बौद्ध धर्म के गेलुपा मत के प्रवर्तक थे। झगड़ा धार्मिक मतों में मतभेद के साथ पश्चिमी तिब्बत में इलाकाई आधिपत्य का भी था। इस लड़ाई में लद्दाख के तत्कालीन नरेश जामयांग नामग्याल (1595 से 1616) ने भूटान का साथ दिया था। चौथे दलाई लामा की इसमें बुरी तरह हार हुई थी। लामा न्गवांग लोबसांग ग्यात्सो वही शख्स थे, जिन्होंने बाद में भूटान का एकीकरण किया था। ख़ैर, युद्ध में समर्थन का खामियाज़ा भूटान के राजा सेन्गे नामग्याल को भुगतना पड़ा, जो 1616 में जामयांग नामग्याल के उत्तराधिकारी बने। चौथे दलाई लामा योन्टेन ग्यात्सो ने लद्दाख पर हमले की तैयारी कर ली, यह देखकर लद्दाखी राजा सेन्गे नामग्याल ने औरंगज़ेब से मदद मांगी। मुग़ल एक ही शर्त पर मदद के वास्ते तैयार थे कि यदि लद्दाख के राजा सेन्गे नामग्याल स्वयं व उनके लोग धर्म परिवर्तन कर लें। इसे देखकर कुछ दूसरे बौद्ध धर्मगुरुओं ने दोनों विरोधी पक्षों के बीच सहमति बनाई और पेंगोंग त्सो को भूटान और तिब्बत की सीमाओं में बांट दिया। लद्दाख के राजा सेन्गे नामग्याल (1616 से 1623) के समय ही पेंगोंग झील का दो तिहाई हिस्सा तिब्बत में चला गया था। इस वास्ते 1616 में एक सहमति तिब्बती धर्म गुरु चौथे दलाई लामा और तत्कालीन लद्दाख नरेश सेन्गे नामग्याल के बीच हुई थी।
लद्दाखी मर्मूट और ब्राह्मणी बत्तख!
पेंगोंग के रास्ते चुशूल घाटी में प्रवेश करते याक के झुंड दिखते हैं। यहां 18 नवंबर 1962 को चीन से युद्ध में भारतीय सेना ने विजय हासिल की थी। इसकी याद में हर वर्ष आइस हाॅकी प्रतियोगिता चुशूल में होती है। कोई हज़ार-बारह सौ लोग चुशूल में रहते हैं, और याक की भी लगभग इतनी ही आबादी है। चुशूल, खाकत्से, मेरक, मन और आखि़र में लुकुंग जहां से पेंगोंग झील दिखने लगती है। लगभग दो सौ किलोमीटर के सफ़र में याक दफ्अतन दिखते हैं, पर्यटकों को क़रीब आते देख दूर भी भाग खड़े होते हैं। इनके बाद पशमीना वुल वाले छांगथांगी बकरे भी दिखते हैं, इन इलाकों में। मगर, पेंगोंग झील वाले क्षेत्र में जो जीव सबसे अधिक हैरान करता है, वह है हिमालयन मर्मूट। तिब्बती पठार का मूल निवासी मर्मूट भूटान, नेपाल का हिमाल क्षेत्र, चीन का शिन्चियांग, छिंगहाए, गांसू, शिचांग, सिचुआन, युन्नान में दिखता है। एक किलोमीटर की परिधि में मर्मूट के तीस परिवार तक रहते हैं। मूषक प्रजाति का स्तनपायी जीव है मर्मूट, जो पहाड़ों में बड़े-बड़े बिल बनाकर रहता है। इनका आहार वनस्पति है। लद्दाख की वादियों में दिखने वाले चार से दस किलो वजनी मर्मूट दुनिया में सबसे बड़े आकार के मूषक फैमिली वाले जीव बताये जाते हैं। इनकी डेढ़ से दो फीट की ऊंचाई होती है और पूंछ लगभग पांच इंच लंबी। पेंगोंग झील में एक जलचर किसी ज़माने में अंग्रेजों को चकित कर गया था, वह है ब्राह्मणी डक। संतरे जैसे रंग के शरीर के कारण ब्रिटिश पक्षीविदों ने इसका नाम ‘ब्राह्मणी डक’ रख दिया था। ये बत्तख सेंट्रल एशिया के कज़ाकस्तान के अलावा अफग़ानिस्तान और उससे लगी बर्फीली झीलों को अपना ठिकाना बनाते हैं। उन इलाक़ों में इस बत्तख को ‘रडी शेल डक’ भी बोलते हैं। ब्राह्मणी बत्तख (रडी शेल डक) का रंग गर्दन से पीठ के आखि़री हिस्से तक गहरा नारंगी या हल्का कत्थई होता है। नर पक्षी के चारों ओर काला कंठा होता है। ये अमूमन जोड़े में पेंगोंग झील में दिखते हैं। आप वहां ग़ौर करेंगे, सुबह के समय ब्राह्मणी बत्तखों का समूह झील की सतह पर अधिक संख्या में नुमायां होता है। 70 सेंटीमीटर लंबे ‘ब्राह्मणी डक’ वनस्पतियों से लेकर मछलियों व जल में विचरण करने वाले दूसरे जीवों को खाते हैं, इसलिए इन्हें सर्वाहारी माना जाता है। ‘ब्राह्मणी डक’ स्वभाव से शर्मीले और चौकन्ने होते हैं।
छांगपा बंजारे और बर्फीले बकरे
छांगथांग पठार के मूल निवासी छांगपा बंजारे हैं जो तिब्बत में ज़ुल्मो-सितम से परेशान होकर लद्दाख वाले हिस्से में चले आये। बर्फीले बकरे से जिसे छांगथांगी बकरा भी बोलते हैं, पशमीना ऊन निकालना, याक से मक्खन, दूध-घी, मांस बेचकर ये अपना गुज़ारा करते हैं। छांगपा खानाबदोशों की संख्या लद्दाख और जम्मू-कश्मीर में 3500 के आसपास है। छांगपा बंजारों में कुछ संपन्न हुए लोगों ने पेंगोंग झील के आसपास स्पांगमिक, मेरक, फोबरांग, लुकुंग, उरूंग जैसे सात किलोमीटर की परिधि वाले गांवों में ‘होम स्टे‘ का इंतज़ाम भी कर रखा है, जहां पर्यटक ठहरते हैं। यह भी इस इलाक़े के गांव वालों के गुज़ारे का एक साधन है। जो लोग होम स्टे का दूसरा विकल्प ढूंढ़ते हैं, उनके लिए 55 हज़ार के फाइव स्टार रिसाॅर्ट से लेकर दो हज़ार प्रति दिन के हिसाब से रिट्रीट कैंप या टेंट में रहने के इंतज़ाम उपलब्ध हैं। पेंगोंग के ग्रामीण इलाक़ों में जीवन काफी कठिन है। इस वजह से भी क्योंकि यहां पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के चुस्त-दुरुस्त साधन नहीं हैं। संचार व्यवस्था राम भरोसे है। यहां से लेह फोन करना हिज्र और वस्ल की रात से कमतर नहीं लगता। ज़्यादातर समय नेटवर्क काम नहीं करता। बदइंतज़ामी ने इस इलाके को उत्तरी ध्रुव जैसा बना रखा है।