मंझधार की तलाश
कविता
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अब किसी से बात करने का
बहाना ढूंढ़ता हूं,
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उम्र होने लग गई,
अपना ठिकाना ढूंढ़ता हूं।
दोस्त बन जाने से पहले
दोस्त होना भी पड़ेगा,
इस शहर की भीड़ में
कोई पुराना ढूंढ़ता हूं।
मुझसे मिलने के लिए
जो रोज़ रहता बेकरार,
दोस्तों में अपने जैसा
एक दीवाना ढूंढ़ता हूं।
शाख़ से टूटे तो पत्ते ने
सिहर कर यूं कहा—
खूब इठलाये हवा में,
तिनके-तिनके में बिखरने का
बहाना ढूंढ़ता हूं।
नदी की बेचैन लहरें
रफ़्तार बनती है, मगर
ठहरने की इस कहानी को
जरा मझधार ढूंढ़ता हूं।
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