उमेश चतुर्वेदी
वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय उभार के बाद जिन कुछ शब्दों ने दुनिया का भरपूर ध्यान अपनी ओर खींचा है, उसमें महत्वपूर्ण शब्द है ‘भारतबोध’। यह शब्द दो शब्दों का सम्मिलन है—भारत और बोध, जिसका सामान्य अर्थ होता है भारत का बोध। स्पष्ट है कि भारत बोध का अभिप्राय है भारत संदर्भित वे अनुभूत तथ्य और सत्य, जिसमें देश की सामूहिक चेतना आप्लावित होती है। भारतबोध भारतीयता का ही चैतन्य विस्तार है।
वरिष्ठ पत्रकार और पत्रकारिता शिक्षक संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘भारतबोध का नया समय’ न सिर्फ इसी बोध को उद्घाटित करती है, बल्कि उसे प्रमाणित करने के लिए शोध के प्रमुख अंग तथ्य और प्रमाण के साथ ही पूर्ववर्ती विद्वानों का भी सहारा लेती है। इस पुस्तक का शीर्षक दरअसल इसके पहले ही निबंध से लिया गया है। बोध के लिए संजीदापन चाहिए होता है, व्यक्तित्व में अगर संवेदनशीलता न हो तो व्यक्तित्व बोधत्व से दूर रह जाता है। भारत बोध में हजारों हजार साल से परंपराओं के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते रहे उन मूल्यों का समावेश है, जिसकी बुनियाद पर भारतीय सभ्यता हजारों-हजार साल से लगातार अपनी श्रेष्ठता बनाए रखे हुए है। भारत बोध को समझने के लिए संजय द्विवेदी ने विवेकानंद, गांधी, धर्मपाल, लोहिया, वासुदेव शरण अग्रवाल, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा आदि के चिंतन को उद्धृत किया है।
भारतबोध की जब भी चर्चा होती है, ‘सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया’, या ‘अयं निज: परोवेति, गणना लघुचेतषाम, उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्’, या ‘ऊं द्यौ शांति’ जैसे विचारों का प्रसंग आना स्वाभाविक है। लेकिन भारत सिर्फ इतना ही नहीं है और उसके प्रति जो बोध बनती है, उसमें सिर्फ मनुष्य और उसकी चेतना ही नहीं है, बल्कि उसके आसपास के जीव-जंतु, नदी-नाले, समुद्र-पहाड़, घास-पतवार सब कुछ है। इन सबकी बुनियाद पर जो राष्ट्र बनता है, उसके प्रति भक्ति आना स्वाभाविक भी है। राष्ट्रबोध और राष्ट्रभक्ति की सोच उसी चेतना में विकसित हो सकती है, जिसके पास अनुभूत प्रमाण हों।
यह पुस्तक तीन खंडों में है। पहले विमर्श खंड में 24 लेख हैं, जिनमें भारतबोध के तमाम पहलुओं पर चर्चा है। पुनर्जागरण से निकलेगी राहें, आजादी की ऊर्जा का अमृत, नया भारत बनाने की चुनौती, राष्ट्र निर्माण में संसद, लोकमंगल है मीडिया का धर्म जैसे विचारणीय लेख विमर्श खंड की जान हैं। इस खंड में गौ संवर्धन से निकलेंगी की समृद्धि की राहें जैसा क्रांतिकारी लेख भी शामिल है, जिसके जरिए लेखक ने भारत के सांस्कृतिक जागरण के साथ ही आर्थिक जागरण का संदेश देने की कोशिश की है।
पुस्तक का दूसरा खंड है, प्रेरक व्यक्तित्व। इस खंड में 10 निबंध शामिल किए गए हैं। इसमें आदि पत्रकार नारद के व्यक्तित्व की चर्चा है, जिसमें यह बताया गया है कि उनकी पत्रकारिता के मूल में लोकमंगल था। इसी तरह भारतीय पुनर्जागरण के प्रतीक पुरुष विवेकानंद पर भी निबंध है। हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के शलाका पुरुष माधव राव सप्रे को सिर्फ इन्हीं दो वजहों से जाना जाता है। लेकिन संजय द्विवेदी ने अपने निबंध ‘माधव राव सप्रे : भारतबोध के प्रवक्ता’ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के कई सेनानियों को वाजिब ढंग से याद नहीं किया जा रहा है। महामना मालवीय ऐसी ही शख्सियत हैं। संजय द्विवेदी उन्हें भारतीयता के प्रतीक पुरुष के तौर पर याद करते हैं। विमर्श खंड में कश्मीर को लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान और उनकी अखंड भारत की परिकल्पना पर भी विचार किया गया है। हिंद स्वराज के बहाने गांधी निबंध में संजय द्विवेदी ने भारत बोध के व्याख्याकार के तौर पर याद किया है।
पुस्तक के तीसरे खंड मूल्यांकन में भारत बोध केंद्रित इसी पुस्तक की दो समीक्षाएं भी शामिल हैं। संजय द्विवेदी की यह पुस्तक भारत बोध की जरूरत को भी रेखांकित करती है।
पुस्तक : भारतबोध का नया समय लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी प्रकाशक : यश पब्लिकेशन, दिल्ली पृष्ठ : 224 मूल्य : रु. 500.