केवल तिवारी
मां शब्द जितना महान है, उतनी ही महान गाथाएं हैं मां की रोजमर्रा के जीवन में। ऊंच-नीच सहते हुए वह मौन रहती है तो उलाहना मिलता है कि इस चुप्पी ने ही सब गुड़-गोबर कर दिया। वह मुखर होती है तो उसे ‘स्त्री होने’ के मायने समझाये जाते हैं, लेकिन अंतत: मां तो मां है। उलाहने, अपनापन, गृहिणी और भी बहुत कुछ। कुछ सीमा में और कुछ सीमा से परे। इन्हीं सब से तो उपजती हैं कहानियां, कहानियां ऐसी जो हम-आपको अपने ही बीच की लगें। ऐसी ही कहानियों की किताब है डॉ. ज्ञानी देवी की ताजा कृति ‘मुहावरे-लोकोक्तियां गढ़ती मांएं।’
कुल 26 कहानियों के इस संग्रह में हर कहानी एक नयी मां से परिचय कराती है। एक बेबस मां से लेकर एक गुणी और अनुभवी मां तक। जिस बच्ची को भ्रम था कि उससे मां से ज्यादा तो प्यार घर के बाकी सदस्य करते हैं, उसके भ्रम टूटने का मामला हो या फिर कहानी संग्रह की शीर्षक रचना ‘मुहावरे लोकोक्तियां गढ़ती मांएं’ में अनपढ़ मां को सही रूप में समझ पाने की समझ आ जाने का विवरण, सचमुच इस किताब की हर कहानी कुछ कहती है।
सबसे अलग और रोचक बात इन कहानियों में है कि इसमें संवादों के झमेलों को लंबा नहीं किया गया है। यानी ‘कोट-अनकोट’ के बाद उसने कहा, अपनी बात खत्म की या बात को आगे बढ़ाया जैसा कोई ‘साहित्यिक लाग-लपेट’ नहीं। सीधे-सीधे संवाद। सभी तो समझते हैं कि बातें चल रही हैं तो जाहिर है एक की बात खत्म तो प्रत्युत्तर में दूसरे की शुरू। शैली पूरी तरह देशज और प्रवाहमयी। जीवन का फलसफा समझाती और मां को समझने की अलग दृष्टि देती यह किताब सचमुच पठनीय है।
पुस्तक : मुहावरे-लोकोक्तियां गढ़ती मांएं लेखिका : डॉ. ज्ञानी देवी प्रकाशक : साहित्य संस्थान, गाजियाबाद पृष्ठ : 152 मूल्य : रु. 350.