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ग़ालिब के आईने में ज़िंदगी और मौत

पुस्तक समीक्षा
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डॉ. चन्द्र त्रिखा

महान एवं कालजयी शायर मिर्जा ग़ालिब के बारे में आत्मकथात्मक शैली में कुछ लिखना एक जोखिम भरा काम है। मगर वेद प्रकाश काम्बोज ने यह जोखिम उठाया और एक ऐसी कृति दे डाली जो शैली, कथ्य और परिवेश को लेकर उनकी पूर्व लेखकीय ज़िंदगी पर भारी पड़ती है।

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अपनी कृति पर लंबी चर्चा होने से पहले ही वेदप्रकाश काम्बोज, ग़ालिब से मिलने दूसरी दुनिया में चले गए। लेकिन यह निश्चित है कि वहां यदि दोनों की मुलाकात हुई तो मिर्जा ग़ालिब, काम्बोज साहब की पीठ भी थपथपाएंगे और कुछ गिले-शिकवे भी कर सकते हैं।

ग़ालिब, भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी शख्सियत हैं जो कभी भी स्मृतियों से ओझल होने का नाम ही नहीं लेती। मयख़ाना, दार्शनिक-चिंतन, अध्यात्म, अस्तित्ववाद और अन्य सभी विषयों को ग़ालिब ने सिर्फ़ छुआ नहीं, जिया भी।

‘काग़ज़ी है पैरहन/हर पैकर-ए-तस्वीर का’

से लेकर

‘कैद-ए-हयात बंद-ए-ग़म/अस्ल में दोनों एक हैं।’

तक की यात्रा ग़ालिब के साथ-साथ वेदप्रकाश काम्बोज ने भी की।

ग़ालिब-कालीन परिवेश को वेद जी ने पूरी गंभीरता और समकालीन मुहावरे के साथ सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है। ग़ालिब को नज़दीक से समझना हो और उसकी ज़िंदगी में करीब से झांकना हो तो यह कृति पूरी-पूरी मदद देती है।

पुस्तक की शुरुआत ‘ज़फ़र’ की ‘जन्नत नशीनी’ से होती है। उस स्थिति को ग़ालिब ने कैसे जिया होगा, इसे समझना हो तो वेद जी की यह कृति बड़े आराम से समझा देती है।

‘जब से अखबार में पढ़ा कि रंगून में बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की 7 नवंबर, 1862 ई. को मौत हो गई। उन्हें बड़ी खामोशी के साथ वहीं एक पहाड़ी के दामन में, जिसकी ढलान पर सुनहरे कलश वाला बौद्ध मंदिर बना हुआ था, बड़ी मामूली-सी क़ब्र में दफना दिया गया है। तभी से मेरे यानी इस 65 साल बूढ़े असदुल्लाह ख़ां ‘ग़ालिब’ के दिल में अपना यह शे’र रह-रह कर गूंजे जा रहा था :-

कैद-ए-हयात बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं,

मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों।

दिल्ली वालों में ‘पीरो-मुर्शिद’ के नाम से मशहूर मुग़ल सल्तनत का आख़िरी बादशाह तो अपनी ज़िंदगी की क़ैद से छूटकर दुनियाभर के ग़मों से आज़ाद हो गया, मगर मैं...

‘हुज़ूर!’ अचानक कल्लू ने चिलम के साथ दीवानखाने में दाखिल होते हुए कहा—‘वह मनहूस ख़बर तो तूने भी सुन ली होगी, कल्लू, जिसका सारे शहर में चर्चा है।’

‘पीरो-मुर्शिद ज़िल्ले-सुब्हानी के जन्नतनशीं होने की?’

‘इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राज़िऊन’। मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकला...

पुस्तक : ग़ालिब बदनाम लेखक : वेदप्रकाश काम्बोज प्रकाशक : अन्तरा इन्फोमीडिया प्रा.लि. पृष्ठ : 256 मूल्य : रु. 320.

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