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राख में छिपे आखर

कहानी

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चित्रांकन : संदीप जोशी
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प्रकाश मनु

जनवरी महीने की कड़ी ठंड के बावजूद साहित्य-सभा के प्रांगण में उस दिन भारी भीड़ थी। बहुत से जाने-माने लेखक, कवि, चिंतक और पत्रकार वहां मौजूद थे। सभी को खुशी थी कि शहर के सबसे वरिष्ठ और स्वनामधन्य लेखक सरस्वती बाबू को आज सम्मानित किया जा रहा है। सभी का उत्साह उमड़ा पड़ रहा था। साहित्य-सभा के हाल में मंच के आसपास खूब चहल-पहल थी। कुछ टीवी के लोग भी आए थे, जो बड़े-बड़े कैमरे लेकर सभा की रिकार्डिंग करने को तैयार थे।

ठीक समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ। मंच संचालक ने साहित्य-सभा के प्रमुख आशुतोष महोपाध्याय तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष पद्मधर जी को मंच पर बुलाया। साथ ही सरस्वती बाबू को भी बड़े सम्मान और आदर के साथ आमंत्रित किया।

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आशुतोष जी, पद्मधर जी और सरस्वती बाबू ने मिलकर दीप प्रज्वलित किया। इसके बाद पद्मधर जी बोले। अपने धाराप्रवाह व्याख्यान में उन्होंने सरस्वती बाबू की पचास बरस लंबी अनवरत साधना का पूरा चित्र उपस्थित कर दिया। फिर उन्होंने सरस्वती बाबू को शॉल ओढ़ाकर श्रीफल और प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया। गले में गेंदे और गुलाब के फूलों की माला।

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आंखों में गहरी श्रद्धा लिए लोग अपने प्रिय लेखक का यह सम्मान देख, गद‍्गद थे। अब महोपाध्याय जी ने बड़े आदर के साथ सरस्वती बाबू से अनुरोध किया कि वे मंच पर आकर अपनी लंबी साहित्य साधना और जीवन के अनुभवों के बारे में कुछ कहें। सरस्वती बाबू माइक पर आकर खड़े हुए तो उपस्थित दर्शकों ने तालियां बजाकर उनका स्वागत किया। कैमरे वालों के लैंस उधर घूम गए। पत्रकार उनका भाषण नोट करने के लिए संभलकर बैठ गए। सभी को उत्सुकता थी कि इस खुशी और सम्मान के मौके पर सरस्वती बाबू क्या कहेंगे?

सरस्वती बाबू ने हाल में सब तरफ निगाहें घुमाईं। कुछ कहना चाहते थे। होंठ थोड़े खुले, फिर एकाएक वे चुप हो गए। उनके मुंह से एक शब्द तक नहीं निकला। जैसे शब्द होंठों तक आकर पीछे लौट गए हों। कुछ सकुचाकर। पूरे हाल में अजीब-सा सन्नाटा था। एकाएक लोगों को सरस्वती बाबू का डूबा-डूबा सा स्वर सुनाई दिया।

‘उपस्थित सज्जनो! मैं आप सभी का शुक्रगुजार हूं कि आप यहां आए और मुझे सम्मान के योग्य समझा। लेकिन क्षमा करें, आज मैं ज्यादा कुछ बोल नहीं पाऊंगा। मेरा गला रुंधा हुआ है। क्यों...? किसलिए? यह भी नहीं बता पाऊंगा। बस, इतना ही समझ लीजिए, मुझे पुराने दिन याद आ रहे हैं। ...अपना बचपन याद आ रहा है। बचपन की अपनी गुरु याद आ रही हैं। मेरी करुणामयी मां। ...वे यहां नहीं हैं। वे अब इस धरती पर भी नहीं है। लेकिन मुझे बनाने वाली वही थीं। मैं तो कायर था, हार गया था और मैदान छोड़कर भाग निकला था, पर वे अनपढ़ भले ही हों, सचमुच बहादुर थीं। नहीं हारीं, वरना मैं शायद अनपढ़, उजड्ड ही रह जाता...।

अलबत्ता, मेरे बचपन की एक छोटी-सी कहानी है, जिसने सरू को आज का सरस्वती बाबू बनाया। आप सबका सरस्वती बाबू। वह कहानी मैं आपको सुनाऊंगा...।’

कहते-कहते सरस्वती बाबू ने थोड़ी देर के लिए आंखें बंद कर लीं। लगा, जैसे वे उड़कर सचमुच अपने बचपन के दिनों तक पहुंच गए हैं। फिर बहुत भीगे हुए स्वर में उन्होंने सुनाई यह कहानी :-

मित्रो, आज से कोई पचास बरस पहले की बात है। तब मैं अपने गांव हिरनापुर में पहली कक्षा में पढ़ता था। पढ़ने में ज्यादा होशियार नहीं था और रोज मेरी पिटाई होती थी। हमारे स्कूल में कक्षा एक में पढ़ाने के लिए एक ही अध्यापक थे, मास्टर कमलाकांत जी। पढ़ाते तो ठीक थे, पर गुस्सा उनका तेज था। उनके गुस्से के मारे मैं थर-थर कांपता था और जो कुछ आता था, वह भी भूल जाता था। कभी गलत वर्णमाला लिखने के लिए मेरी पिटाई होती तो कभी गिनती-पहाड़े याद न करने के लिए। हालत यह थी कि वे मेरा नाम लेकर पुकारते, ‘सरू...!’ तो मुझे लगता, जैसे मेरे अंदर की सारी ताकत निकल गई है। मैं जूड़ी के बुखार की तरह थर-थर कांपने लगता। हाथ में पकड़ी कलम मेरे हाथ से छूटकर नीचे जमीन पर गिर पड़ती और एक तेज भौंकार के साथ मैं रो पड़ता। पर मास्टर जी को इस पर भी दया न आती। वे एक के बाद एक गाल पर तीन-चार थप्पड़ जड़ देते।

मुझे लगता, मुझसे ज्यादा अभागा इस दुनिया में कोई और नहीं है। और जितने देवी-देवताओं के नाम याद थे, मैं सबको नाम लेकर पुकारता कि वे इस आफत से मेरा पिंड छुड़ाएं। ‘हे राम जी, हे गणेश, हे हनुमान...!’ पुकारते-पुकारते मेरा कंठ सूख जाता।

फिर एक दिन जब कक्षा में मेरी बुरी तरह पिटाई हुई, मैंने तय कर लिया कि अब कल से स्कूल जाना बंद, एकदम बंद! घर आते ही मैंने तख्ती एक ओर फेंकी, बस्ता दूसरी ओर। और मां को अपना फैसला सुना दिया, ‘मां, मैं स्कूल नहीं जाऊंगा।’

सुनकर वे तो जैसे हक्की-बक्की रह गईं। उनका उस समय का चेहरा मुझ अब भी याद है। एकदम म्लान। स्याह। मेरी बात सुनते ही उनके चेहरे पर दुख की गहरी छाया दिखाई पड़ने लग गई।

बहुत देर तक उनके मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकली। फिर वे जैसे अंदर का पूरा जोर लगाकर बोलीं, ‘बेटा, तो क्या तू अनपढ़, उजड्ड ही रह जाएगा?’

‘अनपढ़... उजड्ड...!’ सुनकर मुझे बुरा लगा। पर मैं क्या कहता? मेरे मुंह से बस इतना ही निकला, ‘अम्मा, न मुझे वर्णमाला आती है, न गिनती, न पहाड़े। तो... तो फिर...!’ कहते-कहते मैं बुरी तरह रो पड़ा।

मां ने झट मुझे छाती से लगा लिया। खूब लाड़-प्यार करके बोलीं, ‘अरे सरू बेटे, तू रोता क्यों है? कुछ न कुछ हो जाएगा। तू पढ़ेगा, तू जरूर पढ़ेगा।’ उनकी आवाज में एक निश्चय था। विश्वास।

‘पर कैसे, अम्मा...? घर में कोई मुझे पढ़ाने वाला नहीं है। और स्कूल में मास्टर जी की कोई बात मुझे समझ में नहीं आती। ...तो मैं कैसे पढ़ूं? कुछ भी मुझे याद नहीं होता...।’ मैंने अपनी लाचारी बताई।

मां कुछ देर मुझे अपलक देखती रहीं। अपने भीतर की सारी शक्ति जैसे वे मुझमें भर देना चाहती हों। फिर पूरे यकीन के साथ, एक-एक अक्षर पर जोर देकर उन्होंने कहा, ‘मैं हूं न! ...मैं तुझे पढ़ाऊंगी।’ मैं चकित रह गया। पूछा, ‘अम्मा, तुम पढ़ाओगी?’

मां के चेहरे पर दृढ़ता थी। बोलीं, ‘हां बेटा, मैं पढ़ाऊंगी। जरूर पढ़ाऊंगी। मेरा बेटा अनपढ़ नहीं रहेगा।’ मां खुद अनपढ़ थीं, पर शायद थोड़ी-सी गिनती और वर्णमाला उन्होंने बचपन में सीख ली थी। बस, पहाड़े नहीं आते थे। उन्होंने कहा, ‘तू चिंता मत कर। गिनती और अक्षर-ज्ञान मैं करा दूंगी। पहाड़े गंगा काका से सीख लेना। पड़ोस में ही तो हैं।’

मुझे मां की बात पर यकीन नहीं हो रहा था। फिर भी उनका दिल न दुखे, इसलिए मैंने हां कह दी। मां ने सच ही बहुत दुख झेले थे।

***

हम लोग गरीब थे। इतने गरीब कि चाक और खड़िया भी नहीं जुटा सकते थे। कच्चा आंगन था। मां वहां एक कोने में चूल्हे में उपले जलाकर खाना बनातीं। खाना खाने के बाद चूल्हे की राख ठंडी होती, तो मां वहीं एक फटा-पुराना बोरा बिछा लेतीं। उस पर बड़े इत्मिनान से पालथी मारकर बैठ जातीं और साथ में मुझे भी बैठा लेतीं।

एक छोटी-सी लकड़ी से वे राख को अपने सामने फैला लेतीं। फिर उसी हल्की गरमाई लिए राख पर उंगलियां फिराकर पहले खुद क, ख, ग लिखतीं, फिर उंगली पकड़कर मुझसे लिखवातीं। इतना सहज था यह सब, कि जैसे मैं कुछ लिख नहीं रहा। ये सारे आखर तो जाने कब से राख में छिपे बैठे थे। शायद युगों-युगों से। और अब मां की और मेरी उंगलियों के स्पर्श से वे खुद-ब-खुद उभरकर सामने आते जा रहे हैं। किसी जादू की तरह।

मैं जैसे पल भर में ही कुछ बदल-सा गया। भीतर-बाहर से। लगा, चीजें मेरे भीतर और बाहर भी जगमग-जगमग सी हो रही हैं। अंधेरा छंट रहा है। कालिख बिला-सी गई है।

ऐसे ही मैंने थोड़ा-थोड़ा सीखा तो बस, सीखता ही गया। हिम्मत आई। लगा, अरे, इसमें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है, कुछ भी। आदमी चाहे तो क्या नहीं कर सकता?

फिर तो मैं कोयले से जगह-जगह घर में क, ख, ग लिखने लगा। मां नाराज होने के बजाय उलटे खुश होतीं कि उनका बेटा लिखना सीख रहा है। खूब प्यार से मेरी पीठ थपथपातीं। फिर कहतीं, ‘अब मेरे साथ बोल न बेटा, क से कबूतर ख खरगोश...!’

मुझमें जाने कैसी उमंग भर जाती। ‘क से कबूतर... ख खरगोश... प से पतंग, भ भट्टी...!’ जो कुछ याद था, उसे छलक-छलककर गाता। और जो याद नहीं था, उसे बार-बार दोहराकर याद करने की कोशिश करता।

होते-होते वर्णमाला पूरी हो गई। फिर गिनती सीखने का सिलसिला शुरू हुआ। मां मेरे आगे छोटे-छोटे आमों की ढेरी वे रख देतीं। मैं एक आम, दो आम, तीन आम करके दस तक सीख गया, तो फिर आगे झटपट सीखता गया।

मन में पहली बार मैंने ऐसा उत्साह महसूस किया। लग रहा था, अगर हम सीखना चाहें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है।

फिर गंगा काका से दस तक पहाड़े भी सीख लिए। गंगा काका का अंदाज अनोखा था। वे ऐसे पहाड़े याद करा देते, जैसे पहाड़े न हों, कोई बढ़िया-सा गाना हो। बीच-बीच में खूब हंसाते। पहाड़े सही-सही सुना देता तो खूब सारे आम खिलाते। साथ ही सिर पुचकार कर कहते, ‘तू तो बड़ी तरक्की करेगा, बचुवा। बड़ा आदमी बनेगा। हम सच्ची कह रहे हैं।’

मैं सोचता था, जैसे मां पढ़ाती हैं, जैसे गंगा काका पढ़ाते हैं, वैसे मास्टर जी क्यों नहीं पढ़ाते? ये लोग अनपढ़ हैं, मगर कैसे प्यार से पढ़ाते हैं। कितना आनंद आता है पढ़ने में।

***

कोई पंद्रह दिन के अंदर ही मैं वर्णमाला, गिनती, पहाड़े सब सीख गया। मां ने एक बार सुना, दो बार सुना। दस बार सुना। फिर बोलीं, ‘अब भूलेगा तो नहीं, सरू? सच-सच बता।’

‘नहीं भूलूंगा, अम्मा। बिल्कुल नहीं भूलूंगा।’ मैंने उन्हें यकीन दिलाया।

‘तो चल मेरे साथ...!’ कहकर मां ने मेरी उंगली पकड़ी और मुझे अपने साथ स्कूल ले गईं। वे सीधे मास्टर कमलाकांत जी के पास जा पहुंची। बोलीं, ‘मास्टर जी, यह सरू स्कूल आने से डर रहा था। मैं अनपढ़ ही हूं, फिर भी कोशिश करके इसे थोड़ा-थोड़ा पढ़ाया है। अब आप इससे वर्णमाला, गिनती, पहाड़े कुछ भी पूछ लीजिए। यहीं, मेरे सामने। मारिएगा नहीं। मारने से यह सब कुछ भूल जाता है।’

मास्टर जी थोड़ा असमंजस में नजर आए। पर उन्होंने पूछा तो मैं वर्णमाला, गिनती-पहाड़े सब झटपट सुनाता चला गया। कहीं भी मुझे अटकना नहीं पड़ा। सुनकर मास्टर जी खुश हुए। थोड़े शर्मिंदा भी, कि जो काम वे नहीं कर पाए, गांव की एक अनपढ़ औरत ने कैसे कर दिखाया...?

मुस्कुराते हुए बोले, ‘ठीक है चाची, ठीक है... अब यह चल जाएगा।’

और फिर बचपन की वह रुकी हुई कहानी आगे बढ़ी। धीरे-धीरे आगे बढ़ती ही गई! कोई मुश्किल उसे रोक नहीं पाई। अक्षरों का उजाला दिल में फैलता गया, और लगा, अब भीतर कहीं अंधेरा नहीं है, कहीं अंधेरा नहीं...!

जैसे नदी के प्रवाह को किसी बड़ी चट्टान ने रोक रखा हो। और मां ने पूरी शक्ति, पूरी हिम्मत से उसे परे धकेल दिया हो। नदी फिर अपने कल-कल संगीत और उद्दाम वेग के साथ बहने लगी।

मां क्या होती है, यह तभी मैंने जाना। मां में कितनी शक्ति होती है, यह मैंने जाना। और मां क्या कर सकती है, यह मैंने जाना। और यह मैं कभी भूल नहीं पाया कि यह मां ही थी, जिसने मुझे दो-दो बार जीवन दिया। पहले यह शरीर, और उसके बाद आखरों के उजाले के रूप में...! फिर मैं कब, कैसे लेखक हुआ, कुछ याद नहीं। लेकिन बस, इतना याद है कि मुझे लेखक बनाने वाली तो मेरी अनपढ़ मां थीं, जिनके मुखमंडल पर मैंने सचमुच मां सरस्वती का-सा आलोक देखा। उसी दिव्य आलोक में चलता हुआ मैं आगे बढ़ा तो बस, बढ़ता ही चला गया, बहता ही...!

***

सरस्वती बाबू बोल रहे थे, बोल रहे थे और बस बोलते ही जा रहे थे—अपनी रौ में। फिर एक क्षण रुककर, थोड़े थिराए हुए स्वर में उन्होंने कहा... उस साल मैं अपनी पूरी क्लास में फर्स्ट आया और आगे भी हमेशा मेरे अंक क्लास में सबसे ज्यादा आते। हाईस्कूल में तो मेरी सातवीं पोजीशन थी और मुझे स्कॉलरशिप मिलने लगा था।

मैं अकेला बेटा था। घर में घोर गरीबी थी, पर मां को मेरे स्कूल से भागने का पता लगा, तो एक ही बात उनके मुंह से निकली थी, ‘नहीं, मेरा बेटा अनपढ़ नहीं रहेगा। मैं उसे पढ़ाऊंगी। चाहे जैसे भी हो, पढ़ाऊंगी!’ वही मां मेरी पहली गुरु थीं। आज वे नहीं हैं, पर उनका चेहरा याद करके आज भी मेरी आंखें भर आती हैं। पर हां, गंगा काका जरूर सामने बैठे हैं। इस उम्र में यहां तक आने के लिए उन्हें कितना कष्ट करना पड़ा होगा। मुझे इजाजत दीजिए कि मैं उनके चरणों की धूल लेकर, उन्हीं के पास बैठूं...।

कहकर सरस्वती बाबू मंच से उतरे और तेजी से चलते हुए, गंगा काका के पास जाकर उनके चरणों पर जा गिरे। गंगा काका ने उन्हें छाती से लगा लिया और सिर पर हाथ फेरने लगे। सभा में तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी। सभी यह दृश्य देखकर भाव-विभोर हो उठे थे।

***

सभा समाप्त होने पर सरस्वती बाबू ने गंगा काका को अपनी कार में बैठाया और कार हिरनापुर गांव की ओर चल पड़ी।

सरस्वती बाबू ने मन ही मन तय कर लिया था कि वे अपने गांव में ही मां की याद में एक पाठशाला खोलेंगे और वहां नन्हे-मुन्ने बच्चों को प्यार से पढ़ाया करेंगे।

यह निश्चय करते ही उन्हें लगा, मानो फिर से वे अपने बचपन में पहुंच गए हैं और मां मुस्कुराती हुई, प्यार से उनके सिर पर हाथ फेर रही हैं।

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