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गिर रही है पत्तियां

कविताएं

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कहीं गिर रही हैं पत्तियां

अपनी ही गहराई में चुपचाप।

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कहां-कहां से होता हुआ

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नया पानी चेहरे तक पहुंचा है।

कोई सोच नहीं सकता कि

पेड़ क्या सोच रहे होंगे,

उन्हें कितनी राहत मिल रही होगी

पत्तों को छोड़ते हुए, या

दुख से बोझिल हो गए होंगे पेड़!

उनकी जड़ों तक चला गया होगा

ग्रीष्म का उबलता हुआ विषाद।

केवल मिट्टी बता सकती है,

उसे सब पता है।

जब प्रार्थना में होते हैं पेड़,

मिट्टी ही समझती है उनके शब्दों को,

या वह हवा, जो अपनी अनंतता में

बह रही होती है निरंतर।

चुपचाप नगण्य

समय की गुफा से बाहर निकलकर

पक्षी अपने ही शरीरों में सो जाते हैं।

उन्हें पता है शरीर भी

एक घोसला है, जब तक है घर है।

वह नीली गर्दन

और लाल पंख वाला पक्षी

अलविदा कहकर अभी उड़ा है।

उसकी हर उड़ान आखिरी है,

और उसका लौटना

हर लौटने की तरह पहली बार है।

आपके पंखों में

पिछले मौसम की बर्फीली हवा है,

उन पानियों की बूंदें हैं,

जो बादलों से छिटककर

नदियों में घुल गई हैं,

और थोड़ी सी बची हुई हैं

अतल में।

तुम जब अपनी पीली परछाइयों से

बाहर आओगे,

बसंत के पीले पत्ते

और ज्यादा पीले हो जाएंगे।

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