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आंधियों में दीप

कविताएं
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अरुण आदित्य

अपने आत्म से प्रदीप्त

अकिंचन दीप हूं

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हज़ारों खतरे हैं

मेरी टिमटिमाहट पर

प्रेम का दीप हूं

खतरे में है

हर हृदय को दीप्त

करने का मेरा स्वप्न

द्वेष के अंधड़ दे रहे आदेश

किसके हृदय में जलना है

किसका घर जलाना है

न्याय का दीप हूं

खतरे में है

हमारी आत्मा की दीप्ति

हवा ने खोल दी है

आंख की पट्टी

पिलाती है नई घुट्टी

कि अब न्याय नहीं

निर्णय करना है

किसे दंड देना है

किसे अभय करना है

चेहरा देख-परख कर

तय करना है

ज्ञान का दीप हूं

खतरे में है अस्तित्व मेरा

चारों तरफ से कस रहा

अज्ञान का घेरा

मध्यरात्रि कह रही है

स्वयं को स्वर्णिम सवेरा

दीप से कहती

समेटो बुद्धि का डेरा

मूढ़ता में गूढ़ता का

गान करता भव्य उत्सव

ज्ञान से अज्ञान कहता

गप्प दीपो भव।

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