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गुठली

लघुकथा
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कमलजीत सिंह बनवैत

सत्तर साल पहले बचन सिंह अपना गांव छोड़कर असम चला गया था। उसे रेत की खदानों में काम करते हुए पढ़ाई आधी-अधूरी छोड़ने का पछतावा होने लगा था। उसने रात को दीवार में बने आले में रखे दीये की लौ में पढ़ना शुरू कर दिया था। तब ज्ञानी और एफ.ए. की पढ़ाई प्राइवेट हो जाती थी। फिर उसने मेहनत-लगन के साथ बी.ए. भी पास कर ली। ग्रेजुएशन की डिग्री मिलने के बाद उसे रेत की खदानों की तपिश और भी तड़पाने लगी। वह असम छोड़कर चंडीगढ़ आ बसा, जैसे गांव को अलविदा कह कर असम चला गया था।

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अच्छी किस्मत से चंडीगढ़ के ज्ञानी कॉलेज वाले हरबख्श सिंह ने उसे नौकरी दे दी थी। उसे पढ़ाई का चस्का और भी लग गया। बहुत बार वह गर्मियों में सड़क किनारे लगे खंभों की रोशनी में भी पढ़ाई कर लेता था। उसने जिस साल एम.ए. पंजाबी पास की, उसी साल उसकी शादी हो गयी। साथ ही उसे चंडीगढ़ के एस.डी. स्कूल में पंजाबी अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी। वह सुबह के वक्त एस.डी. स्कूल और शाम को ज्ञानी कॉलेज में पढ़ाने जाता रहा।

चंडीगढ़ के निकट मोहाली में उसे सरकारी दाम पर एक प्लॉट मिल गया। मोहाली से सुबह सात बजे वह चंडीगढ़ के लिए निकल जाता और शाम के नौ-दस बजे घर लौटता। बस एक रविवार की छुट्टी होती। उस दिन भी वह चंडीगढ़ की मंडी से साइकिल पर हफ्ते भर की सब्जियां लाने के लिए आना-जाना करता। उसके घर बेटे ने जन्म लिया। उसकी इच्छा बेटे को राजकुमार की तरह पालने की थी। बेटे की तरफ से उसे सदमा तब लगा, जब वह बी.ए. पास करके घर बैठ गया था। उसने बैंक से कर्ज लेकर बेटे को कपड़े का काम शुरू करवा दिया। अच्छी किस्मत से बहू सरकारी अध्यापिका मिल गयी थी। बेटे का कपड़े का व्यापार बहुत न चल सका तो उसने चंडीगढ़ के स्कूल से मुक्त होकर मोहाली के एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली थी। जिस दिन उसके घर पोते ने जन्म लिया, उससे एक हफ्ता बाद ही उसकी पत्नी सुरिंदर कौर सदा के लिए अलविदा कह गयी। सेवामुक्ति के बाद उसका घर पर दिल बिल्कुल नहीं लगा तो उसने अपने बेटे के कपड़ों के शोरूम के एक कोने में मुफ्त होम्योपैथी क्लीनिक का फट्टा लगा लिया। दो-दो नौकरियों के बावजूद उसने होम्योपैथी का डिप्लोमा कब कर लिया था, किसी को पता भी नहीं चलने दिया। करीब दस साल उसने मरीजों का मुफ्त इलाज किया। वह होम्योपैथी वाले बाबा जी के नाम से मशहूर हुआ।

वह सुबह 9 बजे निकल कर रात 9 बजे बेटे के साथ ही घर लौटता। एक रात क्लीनिक से घर लौटते समय दोपहिया वाहन ने उसे टक्कर मार कर गिरा दिया। बचन सिंह की कमर की हड्डी टूट गयी। डॉक्टरों ने इतनी उम्र में ऑपरेशन से जवाब दे दिया। वह घर पर बिस्तर तक सीमित होकर रह गया। उसे रब से गिला तो था पर उसकी रज़ा में सारा दु:ख पी गया। बेटा दुकान पर होता या घर, ज्यादा फर्क नहीं था। वह किसी तरह खुद ही अपने काम संभालता रहा। गर्मियों की छुट्टियों में पोते ने घर में कुत्ता रखने की जिद पकड़ ली। वह अक्सर कहता, ‘दादू तो गुटके (पाठ) से आंख नहीं उठाते। मैं बोर हो जाता हूं। पापा दुकान पर रहते हैं और मां को स्कूल से आकर घर के काम से फुरसत नहीं है। किटी पार्टियों के लिए जब दिल करे वक्त मिल जाता है। जब दिल करे घर से सज-धज कर निकल जाती है पापा व सहेलियों के साथ।’

पिता ने बेटे का दिल लगाने के लिए पपी ले दिया। कुछ हफ्ते तो चाव-चाव में लड़का, पपी के साथ बड़ा लाड़ लड़ाता रहा पर छुट्टियां खत्म होने तक उसका दिल भर गया था। पोते की पिल्ला रखने की जिद थी पर उसकी देखभाल करना उसे अच्छा नहीं लगा। आखिर में विमर्श के बाद पपी को घुमाने और बाहर-अंदर जाने के लिए एक पार्ट टाइम आदमी रख लिया गया।

एक दिन बचन सिंह रात को उठा तो फिसल कर गिर पड़ा। उसकी टांगें-बाजू छिल गये। अगले दिन उससे रहा न गया और कह गया, ‘मेरी मदद के लिए भी आधे दिन के लिए मेल नर्स रख लेना था।’ बहू का मुंह खुलने से पहले ही बेटा भड़क उठा, ‘पापा हम सिर्फ पपी के लिए सर्वेंट अफोर्ड कर सकते हैं। एक और नौकर को पैसे देने लायक रईस नहीं हैं।’ बचन सिंह के मुंह से इतना ही निकला था, ‘मेरी पेंशन से नर्स को तनख्वाह के पैसे दे दिया करो।’ बहू गरज उठी, ‘आपकी पेंशन से तो दवाई और इलाज का पूरा नहीं पड़ता।’ फिर तीनों बचन सिंह के बेडरूम का दरवाज़ा जोर से बंद करके ड्राइंग रूम में जा बैठे। लड़के ने पपी को गोद में लेकर पलोसना शुरू कर दिया।

बचन सिंह ने तकिये के नीचे पड़ा गुटका खोल कर सुखमनी साहिब पढ़ना शुरू कर दिया। पोते का बोरिंग दादू का ताना सुन कर वह बोला तो कुछ नहीं पर उसकी आंखें भर आयीं।

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