मीरा गौतम
‘नि:शब्द की तर्जनी’ (खंड एक) बांग्ला के कवि शंखघोष के तेईस लेखों का संग्रह है, जिसका अनुवाद उत्पल बैनर्जी ने किया है। कविता-सृजन की तकनीक और काव्य-पाठ की गहन तकनीकों में शंखघोष ने बांग्ला कवियों और पाश्चात्य कवियों की तकनीकों और काव्य-शैलियों से दृष्टांत चुने हैं।
‘नि:शब्द की तर्जनी’ में तर्जनी में अंगूठे के बराबर वाली वह अंगुली है, जिसे संकेतिनी भी कहा जाता है। शीर्षक भी संकेतों में कविता के गूढ़ रहस्यों को खोलकर, अपनी सहमति-असहमति को दर्ज करा रहा है। इसमें गद्य विलक्षण है और अर्थ भी ध्वनि-संकेतों में ही ग्रहण किये जा सकते हैं। भारतीय मान्यताओं को यहां उलटकर रख दिया गया है। गद्य भी ऐसे विषयों पर चुन-चुनकर लिखा गया है जो कभी गद्य के अहाते में रखे ही नहीं गये हैं। शंखघोष निर्भय और बेबाक हैं। साहित्य के चौराहे पर मशाल लेकर खड़े हो गये हैं। उन्होंने समकालीनों की बखिया उधेड़कर रख दी है।
‘नि:शब्द की तर्जनी’ शीर्षक लेख में लेखक ‘मौन-नीरवता’ की व्याख्या करते हुए दर्शनिक कीर्केगार्द का हवाला देकर कहता है कि एक-दूसरे से ईश्वर के संबंध में बात करते हुए ‘परमसत्ता’ से संपर्क टूट सकता है। इस संपर्क का नाम ही नीरवता है। साहित्य के सन्नाटे में यही नीरवता अपना आकार ग्रहण करती है।
शंखघोष आग्रह करते हैं कि जब श्वासों-प्रश्वासों के आवृत्त में अपने होने की ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है तब शब्दों के भीतर स्थित तर्जनी अपना काम आरंभ कर देती है। सन् 1966 में लिखित इस गद्य-लेख में उस समय प्रचलित हुए ‘समकालीनता’ के मुहावरे की दस्तक सुनाई देती है। ‘शब्दों से पलायन’ में शंखघोष एक पत्रिका में छपी कविता का हवाला देकर कहते हैं कि एक ही शब्द बार-बार जपमाला की तरह घुमा-घुमाकर नक्शे की तरह तैयार कर दिया गया है। कुछ कवि यही खेल खेलकर कागज रंगते चले जाते हैं। शब्दों की बाजीगरी करने वालों पर शंखघोष की तर्जनी ‘नकार’ की मुद्रा लिये खड़ी है। कविता स्वयं ही खुद की संपूर्ण सत्ता होती है। चालू आलोचना के विरुद्ध यह लेखक का तीव्र शंखनाद है।
कविता में संगीत की तरह होना और संगीत का होना दोनों अलग बात हैं। कविता को जड़ शब्दों से हटाकर ‘सत्य’ की ओर अग्रसर करना कविता का ध्येय होता है। जब शब्दों की पारस्परिकता नये ढंग से विन्यस्त होने लगती है तब इसी के मध्य नि:शब्द संगीत रणित होने लगता है। क्रिली, गिन्सबर्ग, सेलान और वॉजनेसेन्सकी की नाराजगी शब्दों के खोखलेपन के विरुद्ध थी। आवेश या नशे में कविता लिखने वाले भी जानते हैं कि शब्दों में संयम का ध्यान रखना ही पड़ता है। इसी गहरे संबंध को खोजकर नीरवता शब्दों के भीतर की नि:शब्द ध्वनियों को तलाशती है। इसे शब्दों का पलायान नहीं कहा जा सकता।
‘शब्द की पवित्र शिखा’ में शंखघोष की समस्या है कि अन्तत: उजले शब्द किस तरह लिखे जायें? कीट्स ने ऐसे ही शब्दों की कामना की थी। सुंदर, शुद्ध आवेग को प्रकट करने में समर्थ शब्द मिलते कहां हैं। यहीं से कविता के इतिहास में नक्काशीखाना और उसके कारीगर कवियों की जमात पैदा होती है जो शब्दों के ढेर में से छंटाई करके पुराने शब्दों में सूखे-फटे कागजों की खरखराहट की निर्जीवता को छांट देती है। शंखघोष कहते हैं समस्या नये शब्द की सृष्टि नहीं किसी शब्द की नयी सृष्टि कविता को स्वतंत्र चेहरा दे सकती है। यही कविता-सृजन का मूल रहस्य है। आधुनिक कविता के विषय में शंखघोष कहते हैं कि वह कागज पर छपकर पाठक तक आती है। ऐसे में जरूरी है कि उसमें ध्वनिगुण के साथ दृश्यगुण भी हों।
‘कविता-पाठ : शब्द और सुर’ यहां विनय मजूमदार का उदाहरण देते हुए शंखघोष गले के उतार-चढ़ाव से श्रेताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले कवियों पर कटाक्ष करते हैं कि आवृत्ति (अर्थात् दूसरे कवियों की रचनाओं के पाठ) करने वाले कवियों को चाहिए कि मूल कवि की रचनाओं को कंठ देने से पहले वह ध्यान दें कि मूल कवि की शरीर भाषा, होंठों की फरकन और उच्चारण के उतार-चढ़ाव को सही ढंग से पहले पूरी तरह समझ लें। बंगाल में ‘आवृत्ति’ काव्य-पाठ का चलन है, जिसमें रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता-पाठ करने वाले आवृत्तिकर्ताओं को शंखघोष ने नसीहतें दी हैं।
‘लेखक की नियति’ में शंखघोष मानते हैं कि लेखक क्षुब्ध हो जाता है जब उसकी बात को कोई तात्कालीक महत्व नहीं देता। भाषा जब धुर और कुहांसे से भर गयी हो ‘नीरवता’ का तत्व आपको कहां मिलेगा? ‘सत्य’ को पार्श्व से नहीं देखा जा सकता। शंखघोष साहित्यकारों को राजनीतिक हस्तक्षेपों और सरकारी नियंत्रण से बाहर रहने की हिदायत देते हैं।
‘प्रतिष्ठान और आत्म प्रतिष्ठान’ में एक पुराने कोलकाता के प्रतिष्ठान को ध्वस्त किये जाने के बहाने नये और पुराने लेखकों के अंतर्द्वंद्व और टकराहट को छद्म से बाहर लाना चाहते हैं। शंखघोश कहते हैं थूक, थूक ही रहेगा वह अधररस कैसे हो सकता है। पाठकों में ‘रुचि की समग्रता’ का बहुत महत्व है। कोई बुद्धदेव वसु और कोई विष्णु डे में रुचि रखता है। शंखघोष कहते हैं कि मन तो सहस्रधारा है। वह निर्धारित ढांचे में कैद नहीं हो सकता। कविता आवेश नहीं होती।
‘ईश्वर का एक क्षण’ में शंखघोष प्रेरणा और अनुभव को सामने रखकर विभिन्न पश्चिमी कवियों की मान्यताओं को सामने रखते हैं। सन् 1930 और 1940 के कालखंड में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी कविता के विषय में कहा था, ‘इन्हें भीतर के मनजात अनुभव ने पकड़ रखा है। जीवनानंद के संदर्भ में ‘कविता के मैं’ को परिभाषित करते हुए शंखघोष कहते हैं कि वह ‘मैं’ को ‘हम’ शब्द में बदलना पसंद करते थे। ‘विशेषणहीन कविता’ में कवियों के बदलते तेवरों की बात कही गयी है। कविता के इतिहास को दशकों में बांट देना व्यर्थ है। नाम और ख्याति को चिन्हित करने वाले कवि क्या ‘इमेज’ को तोड़कर बाहर निकल निकल रहे हैं? ‘कवि का वर्म’ और ‘तरुण कवि का दु:साहस’ में शंखघोष उन तरुण कवियों को यह कहना चाहते हैं कि तरुण कवि अपनी रचनाओं को लेकर यह जानना चाहते हैं कि स्थापित कवि उनके विषय में क्या राय रखते हैं।
‘आत्मतृप्ति के बाहर’ गद्य लेख में दो समानांतर पीढ़ी जब बराबर लिख रही हों तो इसे इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जा सकता है। लेकिन जो हम लिखते हैं क्या पाठक को उसकी आहट मिल जाती है। साहित्य के इतिहास और समय के बदलते मानकों को समझने के लिए शंखघोष की तर्जनी अपने संकेतों में अत्यंत गूढ़ हैं।
पुस्तक : नि:शब्द की तर्जनी लेखक : शंखघोष अनुवादक : उत्पल बैनर्जी प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 215 मूल्य : रु. 599.