Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

कुहासे की ओट में

बांग्ला कहानी

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
featured-img featured-img
चित्रांकन : संदीप जोशी
Advertisement

अमर मित्र

कल देर रात ललित के पड़ोसी शिवराम को पुलिस उठा ले गई। ललित को भनक तक नहीं लगी। फ्लैट के आमने-सामने आठ हाथ की दूरी के बावजूद वह नहीं जान पाया। एक-दूसरे के कितने निकट रहते हैं वे। फ्लैट का मुख्य द्वार अचानक खुल जाए तो अंदरूनी सीमांत तक दिखाई देता है। दिखते हैं खाट, बिस्तर, मसहरी, तकिया। गर्मी के दिनों में शिवराम नंगे बदन फर्श पर बैठकर चाय के साथ मुरमुरे खाता है, यह भी स्पष्ट दिखता है। दिखता है नाभि तक उसका अस्थिपंजर। इतना करीबी होते हुए भी ललित यह नहीं जान पाया कि कल मध्य रात्रि उसके पड़ोसी को पुलिस उठा कर ले गई।

Advertisement

रत्तीभर भी भान नहीं हुआ उसे। कितनी गहरी नींद में थे वे लोग। हालांकि, उस फ्लैट में तेज स्वर में हो रही बातें साफ सुनाई देती हैं। यहां तक कि अपने कमरे में हांक लगाकर शिवराम उसे कभी भी पुकार सकता है। कल रात पुलिस आई, फिर भी उसने ऊंची आवाज में कुछ नहीं कहा, न चीखा-चिल्लाया और न ही आवाज दी। आश्चर्य होता है ललित को।

Advertisement

ललित पुनः निताई से पूछता है, ‘सच बोल रहे हो न?’

‘आश्चर्य है, आपके पास वाले घर में पुलिस आई और आपको पता तक नहीं चला?’

नीचे झुककर बाजार में नये आए कच्चे आम, सहजन की डंठल का मोलभाव करते हुए ललित सीधा खड़ा हुआ, ‘तुम्हें किसने बताया?’

थैले के अंदर जीवित मांगुर मछली को संभालते और उन पर विरक्त होते हुए निताई ललित की बातों का उत्तर दिए जा रहा था। उसने अचानक पूछा, ‘शिवराम सज्जन व्यक्ति हैं न?’

ललित बीच में बोल उठा, ‘इस बारे में तो पुलिस ही हमसे अधिक जान सकती है।’

ललित पुनः कच्चे डंठल और आम के लिए झुकता है। इस बार पेड़ों पर सहजन कम आए हैं, इसीलिए कीमत चढ़ी हुई है। पेड़ पर सहजन क्यों कम फले, उसी के बारे विस्तार से बता रहा था सब्जी-विक्रेता, जो उसने थोक-विक्रेता से सुन रखा था। किस महीने कुहासा पड़ा था, कब अतिवृष्टि हुई? सहजन ही क्यों, आम की दशा भी खराब है। बौर नहीं पड़े, जो पड़े हैं, वे भी झड़ रहे हैं। ये आम तो पिछले वर्ष के हैं।

ललित याद करने की कोशिश करता है कि सचमुच इस बार शीतकाल में अधिक कुहासा पड़ा था या नहीं? भादों के महीने में अतिवृष्टि हुई थी क्या? याद नहीं आता उसे। ललित के मन-मस्तिष्क पर उस समय कुहासे की चादर थी। वह बाजारी बातों को पकड़ नहीं पा रहा था। कीमत चुका कर वहां से हट आया। निताई भी उसके पीछे था। उसे देखकर ललित को विस्मय नहीं हुआ, क्योंकि निताई जब किसी मुद्दे को छेड़ता है तो उसकी तह तक पहुंच कर ही मुक्त होता है। उस समय उसके मन में कोई दूसरा ख्याल नहीं आता। आज जैसे पुलिस, उसी तरह अन्य किसी दिन कोलकाता के रास्ता-घाट, कार्पोरेशन, सी.एम.डी.ए.। किसी दिन सरकारी आफिस की फाइल, धूर्त किरानी, लोगों की हैरानी।

निताई पूछता है, ‘पुलिस कहती है कि शिवराम के नाम पर कोई गंभीर आरोप है। अच्छा भाई साहब, यह तो बताइए कि क्या उन्हें देखकर लगता है कि पुलिस की बातें सच्ची हैं?’

ललित शीघ्र बाजार से लौटना चाहता है। जानकारी प्राप्त करना जरूरी है। उसके पड़ोसी, एक निरीह व्यक्ति पर ऐसी विपदा आएगी, वह कभी सोच भी नहीं सकता था।

ललित बार-बार निताई का चेहरा देखता है।

‘बहुत बुरा लग रहा है भाई साहब। क्या ही अच्छे खिलाड़ी थे शिवराम। फुटबाल, क्रिकेट, कैरम सब में अव्वल। तालतला स्पोर्टिंग के विरुद्ध सेंचुरी याद है न?’

याद नहीं है ललित को। फिर भी वह हामी भरते हुए गर्दन हिलाता है, अन्यथा निताई उस खेल के बारे में विस्तार से बताना आरम्भ कर देगा।

बिना किसी आहट के, बिना लोगों के जाने इलाके के एक भले व्यक्ति को पुलिस उठाकर ले गई, इस घटना से निताई उद्विग्न हो उठा था। भूचाल-सा आ गया था उसके साधारण रंगहीन स्थिर जीवन में।

घर लौटकर ललित सीमा से पूछता है, ‘तुमने कुछ सुना?’

उसकी पत्नी ने कहा, ‘हां सुना है, शिवराम दा के बारे में तो...? ऊपर के बादल बाबू की पत्नी ने आकर बताया था। उन्होंने कल रात ही देखा। रात डेढ़ बजे के लगभग पुलिस आकर उन्हें पकड़कर ले गई।’

दरवाजे की एक कुंडी से बाजार की थैली लटकाकर ललित गाल पर हाथ धरकर चौखट पर बैठ गया। पूछा, ‘क्या वजह हो सकती है?’

सीमा सिर हिलाती है और फिर धीमे स्वर में कहती है, ‘बादल बाबू कहते हैं कि मर्डर केस हो सकता है। धोखाधड़ी हो सकती है। जाली नोट या बैंक डकैती में भी हाथ हो सकता है।’

ललित व्याकुल हो उठता है, ‘इतने सब एक साथ?’

‘नहीं-नहीं, इनमें से कोई एक। पर मुझे बहुत बुरा लग रहा है। शिवराम दा की तरह के लोग कम ही होते हैं। बेटे-बहू के आंखों के सामने से उठाकर ले गए, हम जान नहीं पाए। अच्छा, पुलिस आखिर अपने आप को समझती क्या है? यदि बाद में अस्वीकार करे कि नहीं ले गए? मार डालें तो?’

ललित का हृदय धड़क उठा, ‘नहीं, नहीं वे ऐसा क्यों करेंगे?’

‘पुलिस का नाम सुनते ही डर लगता है।’

सीमा बाजार के थैले से कच्चे सहजन के डंठल, ताजे हरे आम निकालते-निकालते प्रसंग बदलती है।

‘बाजार में सहजन के फूल नहीं आते?’

‘नहीं अब तो फूलों का समय भी नहीं है। भाद्र-आश्विन में आते थे। सो, इस बार कहते हैं, फूल झड़ गए। सब पेड़ नंगे, सहजन हुए ही कहां?’

ललित ने चुप्पी साध ली। उसे भी तो ज्ञान नहीं कि अतिवृष्टि, घना कुहासा कब कहां अनदेखे हो गया। इस बार भाद्र-आश्विन में तो वर्षा का नामोनिशान तक नहीं था। कुहासा भी पहले जैसा नहीं पड़ा। यह सब सिर्फ व्यापारी जानते हैं। जिनसे सब्जी-विक्रेता फसल खरीदकर बाजार में बैठते हैं। आश्चर्य? वे तो सुबह ही नींद से जाग जाते हैं। कुहासा दिखाई नहीं दिया कभी। सारा साल तो वे कोलकाता में ही रहे। अखबार भी पढ़ते हैं, अतिवृष्टि के बारे में सुना नहीं। जैसे सुना नहीं कभी शिवराम राय के बारे में कभी उल्टा-सीधा। उनके अनजाने शिवराम ने आखिर ऐसा कौन-सा अपराध किया कि उसे रात में पकड़कर ले जाने की जरूरत आन पड़ी।

ललित ने पूछा, ‘तुम उनके घर गई थी? कुछ सुना क्या?’

‘जाऊं क्या?’ सीमा पूछती है।

‘नहीं रहने दो, शर्म महसूस करेंगे वे। पता तो चल ही जाएगा।’ ललित मना करता है।

तभी दरवाजे पर निताई प्रकट होता है। दौड़कर आया था वह। माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं। अंदर आते-जाते उसने दबे स्वर में कहा, ‘क्या जानना चाहते हैं भाई साहब, जानने के लिए कुछ भी नहीं है। पुलिस अपना काम करेगी ही। कितना कुछ जानते हैं लोग? कुछ हो पा रहा है क्या?’

‘जाओ जरा पूछकर तो आओ कि माजरा क्या है?’

निताई ने कहा, ‘पूछा तो... भाभी जी ने कहा कि शिवराम घर पर नहीं हैं। खेल की प्रैक्टिस कराने गए हैं।’

‘मतलब?’

‘जानते नहीं, शिवराम एक प्रशिक्षित अंपायर हैं। अच्छा भाई साहब, अंपायर भी निर्णायक होता। निर्णायक भी तो गलतियां करते हैं?’

‘गलती तो गलती है, फिर उसका निर्णय कैसा?’

‘यह तो मुझे भी पता है कि शिवराम गलती कर सकते हैं। मान लीजिए गलत आउट दे दिया या सीधे रन-आउट नहीं दिया तो इसके लिए निश्चय ही एरेस्ट नहीं होंगे। मुझे इतना बुरा लग रहा है, अंपायर को उठा ले गए।’

ललित सोच में डूबा हुआ था कि क्या करना चाहिए। निताई को साथ लेकर घटना के बारे में पूछताछ करे? पर अब तो वह उपाय भी नहीं। निताई से शिवराम की पत्नी ने झूठ कहा। झूठ इसी तरह बोलते हैं लोग। अंपायरी करने गए हैं। इसका मतलब है कि सारा दिन लौटेंगे नहीं ताकि कोई भी सारा दिन उन्हें ढूंढ़ने न आए।

निताई ने कहा, ‘एक बार पता तो कीजिए। आप उनके पड़ोसी हैं। जरूरी भी है। सोच-सोचकर दिमाग गर्म हुआ जा रहा है। कोई पत्नी को मारकर हिमालय जा रहा है और शिवराम का अपराध कहने को अंपायरी में गलत डिसिज़न लेना। इसलिए एरेस्ट? अच्छा भाई साहब, और कुछ कर सकते हैं वे? मां कह रही थी कि महंगाई की मार जिस तरह लोगों पर पड़ रही है, अभाव में मनुष्य कुछ भी कर सकता है।’

ललित मन-ही-मन सोच रहा था कि आज उसका सारा दिन निताई की बातें सुनते-सुनते बीत जाएगा। किस तरह उसे टाला जाये? उसने कहा, ‘हां, महंगाई तो बढ़ी है, अभाव में वृद्धि हो रही है।’

‘क्यों हो रही है, कहीं कुहासा पड़ा था, जाने कब मूसलाधार वर्षा हुई थी इसलिए।’ रसोई से सीमा ऊंचे स्वर में कहती है, ‘समझे निताई, यही अफवाह फैली हुई है।’

‘हम नहीं जानते फिर भी हो रहा है भाभी जी। देखिए न, मेरे आफिस के ननी मुखर्जी भी यही कहते हैं। सब धोखाधड़ी की बातें। कुहासा, फसल नष्ट, सब बकवास है।’

ललित ने पूछा, ‘कौन ननी मुखर्जी?’

‘सेक्शन इंचार्ज। रिश्वतखोर है वह। बातें बनाता है।’

‘तुम रिश्वत लेते हो?’

लज्जित होता है निताई।

‘नहीं भाई साहब, मुझसे नहीं हो पाता। जाने कैसा महसूस होता है। भले कोई न जान पाए पर जिससे लूंगा वह तो जानेगा ही कि मैं चोर हूं। सड़क-गली में मुलाकात होने पर सिर नहीं उठा पाऊंगा उसके सामने। हो सकता है किसी दिन मेरे बेटे के सामने ही कह दे। कितने शर्म की बात होगी... अच्छा, थाने में पुलिस शिवराम के साथ मार-पीट तो नहीं करेंगे न?’

‘न न, ऐसा क्यों करेंगे?’ ललित अचानक आतंकित हो उठता है।

‘लॉक-अप में पुलिस कितना मारती है, सो जानते नहीं भाई साहब। अखबारों में नहीं पढ़ते?’

तभी सीमा चाय लेकर कमरे में प्रवेश करती है।

‘वे सब गरीब होते हैं। पुलिस गरीबों को देखते ही पीटना शुरू कर देती है।’

ललित सीमा की बातों से चौंक उठता है। वह आगे कहती है, ‘पर हम भी तो अमीर नहीं हैं। शिवराम दा भी नहीं हैं। जिस कदर कीमतें बढ़ रही हैं उसी तरह कुहासा, वर्षा, फूल, बौर झड़ जाने की बातें फैल रही हैं। इसके बाद हमें भी लॉक-अप में पीट कर मारेगी निताई।’

ललित धीमी आवाज में पूछता है, ‘थाने चलें?’

निताई ने जैसे उसकी बात ही नहीं सुनी हो। बुड़बुड़ाते हुए वह कहता है, ‘कुछ पैसे देने पर निश्चय ही नहीं पीटेंगे।’

निताई की बातों से सीमा का चेहरा थरथरा उठा। उसने कहा, ‘महिला होती तो पैसे लेकर भी बर्बाद करके छोड़ते। किसी थाने में एक महिला को शाम के समय ले जाकर सारी रात उसकी बोटी-बोटी की। पढ़ा नहीं था यह समाचार?’

इस बार ललित सीमा को धमकाता है, ‘तुम चुप करती हो या नहीं?’

‘भाभी जी तो ठीक ही कह रही हैं भाई साहब। इस घटना को लेकर बंद तक भी हुआ था।’

‘मुझे इस बारे में बातें करना अच्छा नहीं लग रहा है सीमा। मेरे मित्र विजन के पिता को सारा जीवन पुलिस की नौकरी करके कुछ नहीं मिला। सर से पांव तक एक ईमानदार व्यक्ति थे। कभी अन्याय का साथ नहीं दिया उन्होंने।’

विषन्न हंसी हंसता है निताई।

‘देखिए भाभी जी, मेरे मौसेरे भाई भी वैसे ही हैं। बहुत आदर्शवादी, इसलिए हमेशा तबादले पर रहते हैं। इसी बीच दो बार पूरा पश्चिम बंगाल घूम चुके हैं। मैं तो कुछ पुलिस वालों की बातें कह रहा हूं, सबकी नहीं। थाने में किसी काम के लिए जाइए, कोई आरोप लेकर जाइए, एफ.आई.आर. दर्ज नहीं करेंगे। यदि आपके परिचित किसी की हत्या हो जाए, बलात्कार हो फिर भी बिना पैसे लिए नहीं मानेंगे बल्कि भनक मिलते ही पहले जाकर अपराधी से संपर्क साधेंगे। बलात्कार के मामले इसीलिए तो खारिज होते हैं। यही तो बाजार का हारू जो मछली बेचा करता था। मार-मारकर उसके हाथ-पांव तोड़ दिए। उसका अपराध यही था कि उसने थानेदार के सामने जुबान चलायी, थाने के बारे में सच उगला। अपाहिज हो गया है अब वह। कोई काम नहीं, दाने-दाने का मोहताज है। इस बारे में कौन सोचेगा भाई साहब? यह जो कुहासा, वर्षा की बातें, फूल, बौर झड़ जाने की बातें, यह सब आप पुलिस से ही सुनेंगे क्योंकि उनके साथ व्यापारियों के मधुर सम्बंध हैं। सेफ्टी-पिन की कीमत तक हर दुकान में अलग-अलग है। दूध-मक्खन की बातें तो जाने ही दीजिए। पुलिस सब जानती है, कुछ नहीं कहेगी। कुछ कहेंगे तो पुलिस आपको ही शांति-भंग करने के जुर्म में लॉक-अप में डालकर पीटना शुरू कर देगी।’

बोले जा रहा था निताई। उसका समर्थन किया था सीमा ने। न जाने कितनी बातें जानते है वह, कितनी ढेर सारी खबरें? बोलते-बोलते दोनों की आंखें दपदप कर रही थीं। वे एक के बाद एक घटनाएं सुनाए जा रहे थे। कोलकाता, सिंगुर, बांकुड़ा, पुरुलिया की खबरें।

‘फ्लैट के लोगों को उठाकर ले जाएंगे तो रात में क्यों?’

ललित को लग रहा था कि निताई और सीमा ने अपने अंदर का सारा गुबार आज ही निकालना शुरू किया है। अपने आप को रोक नहीं पा रहे थे वे। ललित को बताए जा रहे थे। उसके अलावा और बोलेंगे भी तो किसे? न जाने कितने दिनों से इकट्ठा था यह सब। कहने का अवसर नहीं मिला था। आज कह रहे हैं। अन्य कोई न सुने, ललित ही सुने। सुनकर ललित कुछ भी नहीं कर सकता, फिर भी वह सुने।

सुन-सुनकर ललित थरथर कांप रहा था। जिस तरह पेड़ के पत्ते अनजानी हवा में कांपते हैं। कंपन के बिना वह बिल्कुल निस्पंद हैं। वह सिर्फ सुनता है। सीमा और निताई उससे कहकर हल्का हो रहे हैं। वे कहेंगे, क्योंकि कहने योग्य उचित स्थान न होने के बावजूद मनुष्य कहता है। किसी से भी या फिर प्राचीन पेड़ों से। उपकथाओं के मनुष्य जिस तरह पेड़, नदी, पहाड़ से गोपनीय बातें कहते थे, उसी तरह ललित से भी कह रहे हैं वे। ललित मानो वह प्राचीन पेड़ हो। अपने कोटरे में रख देगा सारी बातों को। बातें सुनकर पेड़ ने क्या किया था यह उसे याद नहीं। वह सिर्फ अनजाने हवा से कांप सकता है, पत्तों पर से ओस की बूंदें टपकाकर अंधकार में अश्रुपात कर सकता है।

उसे अत्यंत कष्ट हो रहा था।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश

Advertisement
×