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रंगपर्व में...

दोहे
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अशोक 'अंजुम'

रंगपर्व में रंग की, रंगत आलीशान

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एक रंग में रंग गए, राम और रहमान

चढ़ा गए जब जोश में, अद्धा पूरे तीन

घूरे पर घंटों तलक, सोए मंगलदीन

जींस पहनकर छोरियां, डांस करे बिंदास

ले उफान को देखकर, काका ठंडी सांस

घुले रसायन रंग में, होली लगे बवाल

हफ्तों तक सूजे रहे, गोरे-गोरे गाल

पगली को यूं भा गया, ठंडाई का स्वाद

गोरी आई होश में, कई दिनों के बाद

रंग-बिरंगी ऋतु हुई, दिशा-दिशा रंगीन

प्रियतम है परदेस में, गोरी है गमगीन

हुई तरबतर भोर से, निकली जाए जान

इतने देवर देखकर, नई बहू हैरान

कुल कॉलोनी आ गई, भर पिचकारी रंग

भाभी जी नखरे करें, देवर जी हुड़दंग

बचपन की वो होलियां, बचपन का हुड़दंग

बड़े हुए कम हो गईं, अंजुम सभी उमंग

पहले करती थीं सदा, हफ्तों तक धमाल

वह होली अब हो गई, इक दिन में बदहाल

फाग न गाए ईसुरी, ना ढोलक ना चंग

डीजे पर जमकर मचे, छोरों का हुड़दंग

दारू रंगों में घुली, फैल गया उन्माद

नफरत के आवेग में, रहा नहीं कुछ याद

रंग-रंग प्रस्तावना, रंग-रंग निष्कर्ष

रंग-रंग हैं मस्तियां, रंग-रंग है हर्ष

रंग-बिरंगे पर्व की, छटा निराली मित्र

बिजली तन-मन में जगे, बदले सभी चरित्र

काका जी सुर छेड़िए, सभी करें इसरार

अभी असर कम कर रही, ठंडाई की धार

इस होली पर धूप ने, फैला दिया वितान

नए-नए अंदाज से, पंछी भरें उड़ान

पहले भी थीं टोलियां, अब भी टोलीबाज

हुई निरंकुश मस्तियां, बदल गया अंदाज

बूढ़ी काकी नाचती, काका छेड़े ताल

पिचके मुंह में भर गया, ‘अंजुम’ रंग-गुलाल

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