कमलेश भारतीय
डॉ. हरीश चंद्र झंडई के लघुकविता संग्रह ‘क्षणों के प्रतिबिम्ब’ में सामाजिक सरोकार की क्षणिकाएं हैं। हालांकि इसकी भूमिका लिखने वाले रचनाकार प्रो़ रूप देवगुण ने इन्हें लघुकविताएं कहा है लेकिन लगता है कि या तो कविता है या क्षणिका है, लघुकविता कैसे? जैसे या तो कहानी है, या लघुकथा है, छोटी कहानी कैसे? यह अच्छी बात है कि डॉ़ हरीश चंद्र झंडई ने प्राध्यापन से सेवानिवृत्ति के बाद कलम से रिश्ता जोड़ लिया और यह संग्रह प्रस्तुत किया।
अपने अनुभव से वे सामाजिक सरोकारों पर क्षणिकाएं प्रस्तुत कर पाये जिनमें आज की सबसे बड़ी चिंता बेटी बचाओ पर तीन- चार क्षणिकाएं हैं। लगातार तीन क्षणिकाएं तो शुरू में ही हैं बेटियों पर। मां को स्मरण किया वट-वृक्ष रूप में और प्रकृति चित्रण भी मिलता है कुछेक रचनाओं में। कभी बारिश तो कभी चांद। सबसे सार्थक संदेश ‘मुझे चलना है’ में देने की कोशिश रही :- उम्मीदों के खुले आसमान में/ बढ़ जाती है शक्ति/ कुछ और करने की/ जब मिलती है/ सपनों को उड़ान/ चलना है मुझे/ चलना मेरा काम…
बच्चे, प्रेम, साम्प्रदायिकता का कहर, मेरी उड़ान, खूबसूरत वादियां और ऐसी कितनी ही रचनाएं संग्रह को सार्थकता प्रदान करती हैं लेकिन करवा चौथ जैसी रचना को संग्रह में शामिल करते संकोच करना चाहिए था। कुछ रचनाएं राजनीति पर भी हैं लेकिन ज्यादातर सामाजिक सरोकारों की रचनाएं हैं।
पुस्तक : क्षणों के प्रतिबिम्ब रचनाकार : डॉ. हरीश चंद्र झंडई प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर पृष्ठ : 128 मूल्य : रु. 200.