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वैचारिक कशिश की कोशिश

पुस्तक समीक्षा
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अशोक गौतम

आज व्यंग्य का उद्देश्य हास से अधिक विचार है। हास्य के माध्यम से विचार को पाठकों तक पहुंचाना व्यंग्य का साधन है। व्यंग्य के बहुत कुछ समतावादी उद्देश्यों को लेकर व्यंग्य संग्रह ‘कुछ उरे परे की’ के माध्यम से बलदेव राज भारतीय ने व्यंग्य के पाठकों के बीच हंसाते हुए वैचारिक कशिश पैदा करने की कोशिश की है।

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समीक्ष्य व्यंग्य संग्रह में बलदेव राज भारतीय ने अपनी बात इस प्रकार की व्यंग्य शैली में कहा है कि ताकि उनके कहने के मंतव्य को व्यंग्य के पाठकों तक आसानी से पहुंचाया जा सके।

अपने समय में उपजती विसंगतियों, विद्रूपताओं, मूल्यों के विघटन से दो-चार होने के लिए उनके इस संग्रह में 38 व्यंग्य संगृहीत हैं। अपने आसपास की जैसी भी, जो भी विसंगतियां बलदेव राज भारतीय एक व्यंग्यकार की सूक्ष्म नजरों से देखते हैं उन्हें अपनी अनुकूल व्यंग्यमयी भाषा में बखूबी पाठकों के सामने रखते हैं।

‘कुछ उरे परे की’ व्यंग्य संग्रह के व्यंग्य पठनीय और चिंतनीय हैं ही, परंतु उटपटांग मतलब ऊंट की टांग, कमाकर खाओ, टमाटर खाओ, यह जमाना है दुमछल्लों का, भ्रष्टाचार से मुलाकात, मुद्दा झड़ते बालों का, अनोखे लाल का पुतला भंडार, गठन बेरोजगार पार्टी का, टूटी सड़क के फायदे, संसद का आंखों देखा हाल, आया राम गया राम पुरस्कार ऐसे व्यंग्य हैं जो अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक विसंगतियों को बड़ी ईमानदारी से पाठकों के सम्मुख पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

पुस्तक : कुछ उरे परे की लेखक : बलदेव राज भारतीय प्रकाशक ः अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ ः 118 मूल्य : रु. 280.

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Tags :
‘वैचारिककोशिश
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