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बर्फ

कविता
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अरुण चन्द्र राय

बर्फ बोलते नहीं

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पत्थरों की तरह

वे पिघलते भी नहीं

इतनी आसानी से

वे फिर से जम जाते हैं

ज़िद की तरह।

(2)

बर्फ का रंग

हमेशा सफ़ेद नहीं होता

जैसा कि दिखता है नंगी आंखों से

वह रोटी की तरह मटमैला होता है

बीच-बीच में जला हुआ-सा

गुलमर्ग के खच्चर वाले के लिए

तो सोनमार्ग के पहाड़ी घोड़े के लिए

यह हरा होता है घास की तरह

(3)

बर्फ हटाने के काम पर लगे

बिहारी मजदूर देखता है

अपनी मां का चेहरा

जमे हुए हाथों से

बर्फ की चट्टानों को हटाते हुए

(4)

बर्फ

प्रदर्शनी पर लगी है

इन दिनों

जिसका सीना छलनी है

गोलियों के बौछार से

तो इसका मस्तक लहूलुहान है

पत्थरबाज़ी से।

(5)

बर्फ का कभी

नहीं हुआ करता था धर्म

नहीं हुआ करती थी जाति

नहीं हुआ करता था रंगों का भेद

लेकिन अब बर्फ की हत्या हो रही है

पूछ कर धर्म!

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