जीतेंद्र अवस्थी
कोविड-19 महामारी के चलते जनमानस और शासन-प्रशासन को अनेक अप्रत्याशित स्थितियों, परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ा है। संवेदनशील और सजग लेखकों ने इन्हीं हालात को देखा, सुना, समझा, भोगा और फिर रेखांकित किया है। उपन्यास ‘अमर देसवा’ भी कोरोना की दूसरी लहर को समर्पित और अनेक सवाल उठाती कृति है। इस पुस्तक के लेखक प्रवीण कुमार पहले दो कहानी संग्रह दे चुके हैं।
प्रस्तुत उपन्यास कई सवाल उठाता और उनकी खोजबीन, प्रचार करता है। इसके पात्र कोरोना से ही नहीं, भ्रष्ट व नकारा व्यवस्था से भी जूझते हैं। डॉक्टर मंडल अधिवक्ता महेंद्र रामायन महंत कजरौटा डॉ. सीपी और उनके परिजन जान-पहचान के लोग महामारी की विकरालता का मुकाबला करने की कोशिश करते हैं। किंवा सफल या दम तोड़ते सामने आते हैं। यह समय-समय पर साहस दिखाते लेकिन प्रशासन पर चिकित्सकों का वांछित सहयोग न मिलने पर हताश हो जाते हैं। चिरपरिचितों और आसपास के नागरिकों को कोविड-19 का शिकार होते देखना जलती में घी डालने का काम करता है। जूझते-जूझते मौत के आगोश में जाते बाशिंदों और एक साथ जलती चिताओं का त्रास-संत्रास भीतर ही भीतर टूटने का गहरा एहसास कराता है और बची खुची हिम्मत भी तोड़ देता है। जिजीविषा प्रशासनिक प्रणाली के भ्रष्ट आचरण और बेरुखी की बलिवेदी पर जिव्ह होने लगती है।
भारत के बारे में अध्ययन करने आया जापानी नागरिक ताकिओ भी इस देश की कटु सच्चाइयों से बावस्ता होता है—‘कुस अस्ली है… सभी कुस नकली है। अस्ली क्या है… खोजना है।’ किसी खोज में वह भी दूसरी लहर की चपेट में आ जाता है।
छोटे-मोटे कथानकों या घटनाक्रमों का गुंफन लेखन की धार को पैना बनाता है व प्रश्नों को और भी धारदार। कोरोनावायरस से निपटने या निजात पाने के पात्रों के मिले-जुले प्रयासों को हालात धता बताते नजर आते हैं। एक जमात कोरोना से लड़ रही है और दूसरी इस लड़ाई में शरीक होने का ढोंग रच कर पैसा कमाने की दौड़ में नैतिकता को पीछे छोड़ मानवता को तिलांजलि दे देती है। जहां तक शीर्षक का संबंध है उपन्यास का पात्र कजरोटा हंसी और रुदन के बीच गाता है—‘जहंवा से आयो अमर वह देसवा।’
पुस्तक : अमर देसवा लेखक : प्रवीण कुमार प्रकाशक : राधा कृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 232 मूल्य : रु. 250.