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अकेला कब तक लड़ेगा जटायु

लघुकथा
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बलराम अग्रवाल

लगभग चौथे स्टेशन तक कम्पार्टमेंट से सभी यात्री उतर गये। रह गया मैं और बढ़ती जा रही ठंड के कारण रह-रहकर सिहरती, सहमी आंखों वाली एक लड़की। कम्पार्टमेंट में अनायास उपजे इस एकांत ने अनेक कल्पनाएं मेरे मन में भर दीं—काश! पत्नी इन दिनों मायके में रह रही होती... बीमार... अस्पताल में होती... या फिर...। कल्पनाओं के इस उन्माद में अपनी सीट से उठकर मैं उसके समीप जा बैठा।

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गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी। एक... दो... तीन नये यात्रियों ने प्रवेश किया, पूरे कम्पार्टमेंट का चक्कर लगाया और एक-एक कर उनमें से दो हमारे सामने वाली बर्थ पर आ टिके।

‘कहां जाओगे?’ गाड़ी चलते ही एक ने पूछा।

‘शामली।’ मैं बोला।

‘यह?’ सभ्यता का अपना लबादा उतारकर दूसरे ने पूछा।

‘ये... यह...।’ मैं हकलाया।

‘मैं पत्नी हूं इनकी।’ स्थिति को भांपकर लड़की बोल उठी। अपनी दायीं बांह से उसने मेरी बांह को जकड़ लिया।

‘ऐसी की तैसी... तेरी ...और तेरे शौहर की।’ दूसरे ने झड़ाक से एक झापड़ मुझे मारकर लड़की को पकड़ लिया।

‘बचा लो... बचा लो... यूं चुप न बैठो...।’ मेरी बांह को कुछ और जकड़कर लड़की भयंकर भय और विषाद से घबरा उठी। दुर्धर्ष नजर आ रहे उन गुंडों ने बलपूर्वक उसे मेरी बांह से छुड़ा लिया। मेरे देखते-देखते छटपटाती-चिंघाड़ती उस लड़की को कम्पार्टमेंट में वे दूसरी ओर को ले गए।

‘लड़की को छोड़ दो।’ उधर से अचानक चेतावनी-भरा स्वर आया। यह निश्चय ही उस ओर बैठ गया तीसरा यात्री था।

उस गहन रात को दनादन चीरती जा रही गाड़ी के गर्भ में उसकी चेतावनी के साथ ही हाथापाई और मारपीट प्रारम्भ हो जाने का आभास हुआ। काफी देर तक वह दौर चलता रहा। कई स्टेशन आए और गुजर गए। डिब्बे में अन्ततः नीरवता महसूस कर मैंने पेशाब के बहाने उठने की हिम्मत की। जाकर संडास का दरवाजा खोला—तीसरे का नंगा बदन वहां पड़ा था... लहू-लुहान... जगह-जगह फटा चेहरा।

आहट पाकर पलभर को उसकी आंखें खुलीं... नज़रें मिलते ही आंखों के पार निकलती आंखें। मर मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने अंदर संजोते तो लड़की बच जाती... और गुंडे! कहती, मेरे मुंह पर थूकती... थू-थू करती आंखें। उफ्फ।

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