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शुभ हो तुम...

कहानी
सभी चित्रांकन : संदीप जोशी
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‘मम्मी, मौसी आप दोनों बान देंगे मुझे... आपके हल्दी लगाने बिना मेरी हल्दी पूर्ण नहीं हो सकती, पंडितजी... मेरे जीवन की सबसे शुभ, सबसे शुभ महिला है मेरी मां... प्रतिपल मेरी मंगलकामना करने वाली मेरी मंगलकारिणी मां... वर्षों से अकेले ही हमारा पालन-पोषण किया, पढ़ाया-लिखाया, स्वावलंबी बनाया... तब इनका होना अशुभ नहीं था!’

अनुपमा नौडियाल

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‘जिया रैंया जिया रैंया मेरा बरमाजी...

जैना दीनि हलदी का बाना हेऽऽ, दे द्यावा देद्यावा मेरी चचीजीऽऽ, दे द्यावा हलदी का बाना हेऽऽ...

पृष्ठभूमि में चल रहे इन हृदयस्पर्शी मांगल गीतों ने आसपास बैठी सभी महिलाओं को भावुक कर दिया था। सभी के नेत्र सजल थे, सिवाय चार बुज़ुर्ग महिलाओं के, जो बरामदे में बिछे दीवान पर बैठीं मांगल गा रही थीं... अपने आप में मगन, दिल खोलकर, कंठ खोलकर.. बिना माइक की सहायता के। विवाह के दिन प्रातः वर व कन्या को अपने-अपने घरों में हल्दी लगाकर मंगल स्नान कराये जाने की परंपरा है...

कुटुंब की सभी महिलाएं पीतल की बड़ी परात में रखे विभिन्न द्रव्यों जैसे कुटी कच्ची हल्दी, सुगंधित उबटन, दही आदि में दूब से बनी दो गुच्छियां डुबो-डुबोकर कन्या के पांव, बाहें, हथेलियों, कंधों और सिर पर स्पर्श कराकर हल्दी लगाती हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में इसे ‘बान’ देना भी कहा जाता है। इसके साथ ही महिलाएं ‘मांगल’ गाती रहती हैं जिसमें हल्दी लगाती सौभाग्यवती महिला का परिचय भी देती जाती हैं... मां, भाभी, ताई, चाची, नानी, दादी, बुआ...

पीला स्लीवलेस सूट पहने, चौकी पर बैठी थी विनती। लाल फूलों वाली पीली चुन्नी ओढ़े... कृत्रिम फूलों के गहने पहने... हमेशा चंचल रहने वाली विनती आज शांत बैठी थी। मन में था अथाह सागर... अगणित भावनाओं का। नया सफ़र... जीवनसाथी का साथ... माता-पिता, भाई-बहिनों से विदाई की पीड़ा... नये घर में, नये वातावरण में तारतम्य बैठा पाने या न बैठा पाने का डर... कुछ भावनाएं उमंग और उल्लास जगा रहीं थीं, कुछ पीड़ा तो कुछ आशंका... इन सब के बीच वह बान देने आ रही महिलाओं के माथे पर टीका भी लगा रही थी और साथ ही मौली भी बांध रही थी... यंत्रवत। लाल सफ़ेद मोती जड़ी नथ, मांग टीका, गुलूबंद पहने पीली साड़ियों में सजी महिलाओं का दिव्य स्वरूप देखते ही बनता था। ताईजी, चाची, भाभी, बुआ सभी हल्दी लगा चुकी थीं। चौकी पर बैठी विनती की आंखें अपनी मां को ढूंढ़ रही थीं, ‘कहां गायब हो गयी मम्मी!’ अभी कुछ देर पहले तो देखा था उन्हें.. परात, चौकी आदि सब वही तो रख रहीं थीं यहां... तभी पंडित जी ने आवाज़ दी, ‘और कोई है बान देने वाला तो आ जाओ...!’

बड़ी देर से कोने में रखी एक कुर्सी पर बैठी विनती की बड़ी मौसी आगे आयी। मौली बंधवाने के लिए अपना बायां हाथ आगे बढ़ा दिया। पंडितजी ने एक नज़र भरपूर देखा उन्हें... पीली सिल्क साड़ी पहने बेहद गोरी बड़ी मौसी बहुत अच्छी लग रही थीं... माथे और मांग में सौभाग्य चिह्न नहीं थे... ‘आप दायां हाथ दीजिए...’

‘पर बाएं में बंधता है न महिलाओं के पंडित जी!’ बड़ी मौसी ने कहा। तभी विनती की मम्मी भी आ गई, उन्होंने भी हाथ आगे बढ़ाया मौली बंधवाने के लिए।

‘आप भी अपना दायां हाथ आगे कीजिए’, पंडितजी ने कहा, ‘सुहागिनों के बायें हाथ में बंधता है...’ ‘बांधने के उपरांत धीमे स्वर में बोले, ‘आप लोग बान नहीं दे सकते... शुभ नहीं होता...।’

इस कुप्रथा का भान तो उन्हें रहा होगा किन्तु इस प्रकार सभी के सामने कहे जाने से हतप्रभ थीं वे दोनों। अपमान और लज्जा के भावों को मम्मी और बड़ी मौसी के चेहरों पर आते-जाते देख पा रही थीं विनती। बड़ी मौसी तो तेज तर्रार थीं... तेजस्विनी थीं, फिर भी इस क्षण कैसी लाचारी थी उनकी आंखों में! विनती हैरान थी, क्यूं नहीं लगाएगी उसकी मम्मी उसे हल्दी! और मौसी! इनकी गोद में, स्नेह की छत्रछाया में पल कर बड़ी हुई है वो... विनती ने मम्मी की ओर देखा... पिछले कितने महीनों से भाग-दौड़ में लगी थीं वो... शादी का पूरा प्रबंध करने में रात-दिन व्यस्त... बाज़ार, कपड़े-गहने, कार्ड छपवाना... बंटवाना, टैंट, हलवाई, मिठाई आदि-आदि न जाने कितने काम, सब वही तो कर रहीं थीं! और अब अचानक अशुभ हो गयीं! हल्दी लगाने का अधिकार नहीं, कन्यादान का अधिकार नहीं, क्या है ये सब! तभी पंडित जी ने पास खड़ी चाचीजी को संकेत किया, कन्या को स्नान के लिए ले जाया जाए।

अब बैठी न रह सकी विनती, उठ खड़ी हुई, ‘मम्मी, मौसी आप दोनों बान देंगे मुझे... आपके हल्दी लगाने बिना मेरी हल्दी पूर्ण नहीं हो सकती, पंडितजी... मेरे जीवन की सबसे शुभ, सबसे शुभ महिला है मेरी मां... प्रतिपल मेरी मंगलकामना करने वाली मेरी मंगलकारिणी मां... वर्षों से अकेले ही हमारा पालन-पोषण किया, पढ़ाया-लिखाया, स्वावलंबी बनाया... तब इनका होना अशुभ नहीं था! पापा वर्षों पहले चले गए... अकेले दम पर नौकरी भी करती रहीं, हमें बड़ा करती रही... सारे दायित्व निभाने में जुटी रही, तब नहीं थी अशुभ! पापा के गुज़र जाने से इनकी शुभता भी जाती रही? मम्मी... मेरे नये जीवन‌ का शुभारंभ होने जा रहा है, आपके आशीष के बिना कैसे होगा!

पंडितजी अवा‍क‍् रह गए! विनती की बात से एक स्तब्धता पसर गई थी... सभी चुप... फिर धीरे-धीरे कानाफूसी के मद्धिम स्वर सुनाई देने लगे। चाचीजी मुंह में पल्लू दबाए लानत भेज रही थी, ‘बहुत सिर चढ़ा दिया इसकी मां ने इसे... क्या संस्कार दिए! अपने ही ब्याह में छोरी कचर-कचर जुबान चला रही है... कोई लाज शर्म नहीं...’ बुआ भी चुप न रहीं, ‘क्या बकवास कर रही है बिन्नी! हैंऽऽ! सरम नहीं आती!’ पास बैठी ताजी अपनी बड़ी-सी नथ झुलाते हुए बोली, ‘क्या करना दीदी... बिना सांई गुसांई के ‘कंटरोल’ से बाहर हो गई लड़की... भलो भलो ससुराल में खा पाएगी...’ विनती की मम्मी इस छीछालेदर को देख रही थी। घर आई महिलाओं को तो कुछ कह नहीं सकती थी, बेटी को ही डांट दिया, ‘भगवान के लिए चुप हो जा बिन्नी! क्यूं मेरे किए-कराए पर पानी फेर रही है... देख, सब बातें बना रहे हैं।’ सिर झुका था उनका।

‘पर मम्मी, मुझे यह बात सही नहीं लग रही...’

‘तुम्हारे सही-ग़लत से कुछ नहीं होता बेटे... बरसों से यही होता आया है... सब पालन करते हैं ‌फिर मैं और तुम क्या चीज़ हैं! प्लीज़ बेटे... मत बोलो कुछ और, खामखाह विघ्न डाल दिया। चलो... स्नान के लिए।’

कैसी लाचार दिख रही थी मम्मी.... कहां गया वो आत्मविश्वास जिसके बल पर महीनों से अकेले सारा प्रबंध कर रही थीं! अभी घंटा भर पहले ही तो मेज पर उड़द की दाल की पकोड़ियां थाल में सजाकर गयी थीं... लड्डुओं को पिरामिड के आकार में सजाकर गयी थीं... ‘ये सब अशुभ नहीं हुआ?’ हैरान थी विनती। वहां उपस्थित महिलाओं के लानत भेज रहे मद्धिम स्वरों के बीच एक व्यक्ति अचानक खामोश बैठा रह गया था। बारह वर्ष पुरानी एक छवि बार-बार मस्तिष्क में घूम रही थी... चौकी पर पीला कुर्ता पहने बैठा वह स्वयं... हल्दी के ‘बान’ देतीं, मांगल गातीं स्त्रियां... बड़ी-सी नथ डुलाती, निर्देश देती दादीजी... और एक कोने में चुपचाप खड़ी, सिर पर ओढ़े पल्लू को कसकर पकड़े दूर से ही उसे निहारती उसकी मां जी। मां जी के सजल नेत्रों में असीम स्नेह के साथ-साथ पीड़ा भी देखी थी उसने। दादीजी ने सख्त ताकीद की थी, ‘वो आस-पास नहीं दिखनी चाहिए।’ उस क्षण चौकी पर बैठे हुए उसके युवा मन में भी वही निराशा और पीड़ा थी जो इस क्षण विनती के मन में थी। उस समय‌ जो अन्याय प्रतीत हो रहा था अपनी मां जी के प्रति, आज उसी आचार को न्यायसंगत ठहरा रहा था वो! उस समय विवश था, आवाज़ उठाने का साहस नहीं था किन्तु आज! इस क्षेत्र का सुप्रसिद्ध आचार्य था वो। आज तो मानवीय भावनाओं को रूढ़िवादिता से ऊपर रख सकने का अधिकार था उसके पास... वह चाहता तो एक कन्या का मन रख सकता था। दो महिलाओं पर अपने ज्ञान की शेखी न बघारकर उन्हें अपमान और लज्जा से बचा सकता था‌, किंतु उसने भी वही किया जो किया जाता रहा है... वैधव्य का अपमान... जिसमें किसी स्त्री का कोई दोष नहीं... क्या किसी विधुर का अपमान होता है मांगलिक अवसरों पर!

कोई देख नहीं पाया था... अपनी छलछला आईं आंखों को पंडितजी ने कंधा उचकाकर कुर्ते की बांह से पोंछ दिया था। अपनी संवेदनहीनता पर क्रोध भी आ रहा था मन ही मन। विनती के चाचा जी आए और उसे डांटते हुए बोले, ‘क्या तमाशा लगा रखा है बिन्नी! चलो... और पंडित जी आप वहां कोने में क्यूं बैठ गये, चुपचाप आगे की विधि संपन्न कराइये...।’

पास बैठी ताईजी ने समर्थन किया, ‘बेकार की जिद न कर छोरी... सुहागिनें ही दे सकती हैं हल्दी के बान वरना अशुभ माना जाता है... है न पंडीजी!’ पंडित जी ने एक शब्द न कहा। अपनी बच्ची के अशुभ मात्र की आशंका से ही घबरा कर अपने कदम और पीछे ले लिए विनती की मम्मी ने। किंतु वह डटी रही, ‘आप और मौसी दोनों हल्दी लगाओ मुझे... नहीं तो मैं चौकी पर ही बैठी रहूंगी।’ ‌यह बोलते हुए उसने ग़ौर किया... अभी तक तरह-तरह के तर्क दे रहे नरोत्तम पंडितजी चुप थे, कोई प्रतिरोध नहीं... विनती को बल मिला, ‘आप दोनों मुझे हल्दी लगाओ... मेरे सिर पर अपना हाथ रखो... आशीर्वाद दो... आपकी शुभता किसी से कम नहीं है मम्मी... आप मेरे लिए दुनिया की शुभतम‍् महिला हो... आगे आओ आप...।’

बड़ी मौसी और मम्मी कन्या को ‘बान’ देने को आगे बढ़ीं... विनती के चेहरे पर अपनी चिर-परिचित मुस्कान लौट आई।

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