कचरे से सोना
एक सुबह, हवा में हल्की ठंडक थी। सुशील क्लिनिक के भीतर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि सामने से वही कचरा गाड़ी गुज़री, जिसमें कभी उसने अपने बचपन को घसीटा था। उसने आंखें बंद की और धीरे से कहा, “बापू... आज आपका बेटा कचरे से नहीं, लोगों के दर्द से लड़ रहा है। आप देख रहे होंगे... मैं डॉक्टर बनकर आपके संकल्प को आगे बढ़ा रहा हूं।” एक आंसू उसके गाल पर ढुलक आया, पर यह आंसू दु:ख का नहीं, एक अधूरे बचपन के पूरा होने की गवाही था।
सहारनपुर की गलियों में उस सुबह हल्की ठंडक थी, पर सुशील के कंधों पर पड़े बोरे के वजन से उसका बचपन बार-बार कांप जाता था। बारह साल का यह बच्चा उम्र से पहले ही ज़िंदगी के बोझ तले झुक गया था। उसके बाप ने उसे डॉक्टर बनाने का सपना देखा था, लेकिन एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ा और सारे सपने बिखर गए। बाप के मर जाने के बाद घर में जैसे अंधेरा उतर गया हो। रिश्तेदारों का व्यवहार भी बदल गया। लोग कहते हैं, “दुखिया पर सबका रोना, पर साथ किसी का नहीं होना”, और यही उसके घर का सच था।
उसकी बहन नेहा किताब पकड़े बोली, “भैया, तुम क्यों पढ़ाई छोड़ रहे हो?” सुशील ने उसकी आंखों में देखते हुए जवाब दिया,“नेहा... घर चलाने वाला और कौन है? मां दमे की बीमार है... तू पढ़ रही है... तेरा पढ़ना मेरे पढ़ने से ज्यादा जरूरी है। बस तू पढ़, मैं संभाल लूंगा।”
नेहा की पलकों से आंसू ढुलक पड़े, “भैया, तुम भी पढ़ना चाहते थे!” सुशील बोरा उठाते हुए बोला, “कभी वक्त बदलेगा, मेरे सपने आज नहीं तो कल पूरे होंगे। अभी तुम्हारा स्कूल ज़रूरी है।” उस मासूम वाक्य में जो “आज नहीं तो कल” था... वही उसकी भविष्य की नींव बन गया।
एक दोपहर, जब वह गली के नुक्कड़ पर कचरा चुन रहा था, तभी पीछे से आवाज़ गूंजी, “अरे हट कचरे! सामने से हट!” यह आवाज़ किसी अनजान की नहीं थी। यह आवाज रफीक चाचा की थी, वही जो सुशील के पिता के जिंदा रहते उसके सिर पर हाथ फेर कर ‘बेटा’ कहा करते थे। सुशील ने धीरे से कहा, “चाचा... मैं तो पहले ही साइड में था, और हट जाता हूं।” रफीक चाचा ने उसे जोर से धक्का देते हुए कहा, “मेरी दुकान के सामने मत आया कर। बदबू मारता है कचरा! लोग क्या कहेंगे?”
सुशील लड़खड़ा कर गिरते-गिरते बचा। उसकी आंखें भर आईं, पर आंसू टपके नहीं... जम गए, भीतर ही कहीं जम गए। वह बोला भी नहीं। बस कचरे की बोरी उठाकर आगे बढ़ गया। वक्त उसे इस तरह धक्के दिलायेगा, उसने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था। वह हर कदम के साथ खुद से पूछ रहा था? “क्या मैं सच में कचरा हूं... क्या जिनके मां-बाप नहीं होते, ऐसे सब गरीब बच्चे कचरा होते हैं, जिन्हें जो चाहे फटकार दे, जो चाहे धक्का दे दे?”
उस रात नेहा ने भाई का मौन पढ़कर पूछा, “भैया क्या हुआ?” सुशील ने हल्की आवाज़ में कहा, “नेहा... कोई हमें छोटा समझे तो क्या हम छोटे हो जाते हैं?” नेहा ने सिर हिलाते हुए कहा, “नहीं भैया! बापू कहा करते थे, ‘इंसान उसके काम से नहीं, विचार और कर्म से बड़ा होता है’।” उस रात सुशील ने आसमान की तरफ देखते हुए धीमे से कहा, “बापू... मैं डॉक्टर बनूंगा! मैं आपके संकल्प को पूरा करूंगा, और उन बच्चों और उनके परिवारों का इलाज करूंगा जो मेरे जैसे हैं, कचरा बीनते हैं। किसी को भी ‘कचरा’ नहीं कहलाने दूंगा।” उसकी आवाज़ में दर्द नहीं... प्रतिज्ञा थी।
पांचवी की कक्षा भी पूरी नहीं की थी, कचरा बीनने के अलावा कुछ नहीं आता था, लेकिन उसने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था... वह अब दूसरी राह ढूंढ़ने लगा। मोहल्ले की बड़ी कपड़े की दुकान ‘श्यामलाल एण्ड संस’ के सामने वह रोज खड़ा होकर कुछ सोचता रहता... एक दिन हिम्मत करके अंदर गया।
“क्या चाहिए?” दुकानदार श्यामलाल जी की आवाज़ कड़क थी। “चाचा जी, काम चाहिए। कोई भी काम, जो आप मेरे लायक समझंे, झाड़ू लगाने से लेकर पानी पिलाने व सामान ढ़ोने तक।”
“तू तो कचरा चुनता है न? फिर दुकान का काम तुझे कैसे आएगा?”
“आ जाएगा चाचा... सीख लूंगा। मुझे तो घर चलाना है...”
श्यामलाल जी कुछ पल उसे नीचे से ऊपर तक देखते रहे।
फिर बोले, “नाम क्या है?” “सुशील!”
“ठीक है। पहले दिन तुझे रख लेता हूं पैर ज़मीन पर और आंखें काम पर रखना। ईमानदारी से काम करेगा तो आगे के लिए रख लूंगा।” सुशील के चेहरे पर अरसे बाद उजाला उतरा, “चाचा जी, मैं दिल से काम करूंगा। झूठ नहीं बोलूंगा।” सुशील ने श्यामलाल को आश्वस्त किया।
“बस यही चाहिए।”
सुशील ने पूरी ईमानदारी से काम शुरू किया और श्यामलाल का भरोसा जीत लिया। वह स्वयं भी साफ-सुथरा रहता और दुकान की सफाई का भी विशेष ध्यान रखता। श्यामलाल खुश थे उन्हें जिस तरह का समझदार, ईमानदार और भरोसे का आदमी चाहिए था, सुशील के रूप में वह उन्हें मिल गया था। एक दिन श्यामलाल ने देखा कि एक ग्राहक को वह पानी पिला रहा था और ग्राहक पूछ रहा था, “तू स्कूल जाता है?” सुशील ने धीरे से कहा, “पहले जाता था... अब बस बहन जाती है।”
ग्राहक के जाने के बाद श्यामलाल ने सुशील को बुलाया। उन्होंने कभी उसके घर-परिवार और उसके बारे में कुछ भी नहीं पूछा था लेकिन ग्राहक से हुई सुशील की छोटी-सी बातचीत ने उन्हें जगा दिया था। “बेटा, तुम कचरा क्यों चुनते थे, तुमने पढ़ाई क्यों छोड़ी?”
सुशील ने नीचे अगंूठे से जमीन कुरेदने की कोशिश करते हुए संकोच के साथ कहा, “घर में बहन है, बीमार मां है चाचा जी... बापू नहीं है... बहन को पढ़ाने, मां की ईलाज कराने और घर चलाने की जिम्मेदारी मेरी ही है। पढ़ना तो चाहता हूं, लेकिन स्कूल जाऊंगा तो बहन कैसे पढ़ेगी, मां का ईलाज कैसे होगा... घर कैसे चलेगा?”
श्यामलाल जी उसका धीमे स्वर में उसकी बेबसी सुनकर खामोश हो गए। फिर उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोले, “मेहनत का बोया बीज एक दिन जरूर मीठे फल देता है।” श्यामलाल ने सुशील के भविष्य का रास्ता खोलते हुए कहा, कल से आधा दिन दुकान, आधा दिन स्कूल। फीस मैं भरूंगा और घर की भी चिंता मत कर।”
सुशील की आंखों से पहली बार आंसू गिरे। वह श्यामलाल के पांवों पर गिर पड़ा। बोला, “चाचा, आप मेरे बापू की तरह हो...” श्यामलाल जी ने उसे उठाते हुए कहा, “बेटा... आदमी अपने बच्चों को आगे बढ़ता देख खुश होता है। आज से तू भी मेरा बेटा है।”
अब सुशील का दिन कुछ ऐसा होता, सुबह स्कूल, दोपहर दुकान और रात में पढ़ाई। फिर बहन के साथ देर रात तक होमवर्क। बीच-बीच में बीमार मां सुशील के सिर पर हाथ फेरती हुई आशीर्वाद दे जाती, ‘भगवान तुझे कामयाब करे’। बहन कहती, “भैया थोड़ा आराम कर लो।” वह हंसते हुए कहता, “आराम तो तब करूंगा जब बापू को गर्व से बताऊंगा कि उनका बेटा डॉक्टर बन गया है।”
न बिजली का बिल भरने लायक पैसे, न दो वक्त का पूरा खाना, पर दोनों भाई-बहन सपनों की आग बुझने नहीं दे रहे थे। कहते हैं कि ‘मेहनत की रोटी भले काली हो, पर इज्जत सफेद होती है।’ सुशील की इज्जत मोहल्ले में बढ़ने लगी। सुशील पढ़ाई में बहुत तेज था, इतना तेज कि उसकी कक्षा के बच्चे कहीं उलझते तो उसकी मदद लेते। परिश्रम का फल भी सामने आया, सुशील ने दसवीं में टॉप और बारहवीं में जिले में दूसरा स्थान प्राप्त किया।
श्यामलाल जी ने खुश होकर पूरे बाजार और मोहल्ले में लड्डू बंटवाए और सुशील से कहा, “बेटा, अब पीछे मत देखना। आगे मंज़िल तेरा इंतजार कर रही है।” श्यामलाल ने सुशील को दुकान के करीब ही दो कमरों का एक अच्छा घर किराये पर ले दिया था। किराया वह खुद देते थे।
अपनी मेहनत के बल पर सुशील को एमबीबीएस में एडमिशन मिल गया था। कभी-कभी उसके पास किताबों के लिए पैसे नहीं होते थे। वह चाहता तो श्यामलाल जी इंतजाम कर सकते थे, लेकिन वह उन पर ज्यादा बोझ नहीं बनना चाहता था। वह लाइब्रेरी के कोने में देर रात तक बैठकर पढ़ाई करता। कई रातें भूखे पेट बीतीं। कई रातें क्लास खत्म करके ट्यूशन पढ़ाते गुजरीं। पर हर पल उसे कचरा बीनते बच्चों की खांसी, उनके कटे हाथ, उनकी लाल आंखें और सांस फूलते अपनी मां की तरह उनकी मां याद आ जाती। वह खुद से कहता, “मैं उनके लिए ही पढ़ रहा हूं... हार नहीं मानूंगा।” उसकी प्रतिज्ञा और दृढ़ हो जाती।
आखिर वह दिन आया जब डॉ. सुनील कुमार विश्वविद्यालय में पहले स्थान पर था। दीक्षांत समारोह में कुलाधिपति ने जब उसे डिग्री सौंपी तो उसकी आंखें सागर बन गयीं। श्यामलाल के प्रति कृतज्ञता, पिता के संकल्प की पूर्णता, मां का आशीर्वाद और बहन का स्नेह उसकी आंखों से सरिता बन प्रवाह हो रहा था। बहन ने उसे गले लगाकर कहा, “भैया, बापू होते तो कहते... ‘मेरा बेटा चांद बन गया’।” सुशील की आंखें फिर भर आईं, “नेहा... मैं तो सिर्फ सूरज की किरण बनने निकला था, पर तू मेरे लिए चांद बनकर साथ रही।”
और एक दिन जब वह अपने पुराने मोहल्ले में आया तो सामने से रफीक चाचा बड़े धीमे कदमों से गुजरते दिखाये दिए। सुशील को देखकर उनके चेहरे पर झिझक और आंखों में शर्म का बोझ था। रफीक धीमी आवाज़ में बोले, “डॉक्टर साहब! मेरी छाती में दर्द रहने लगा है। मेरा भी ईलाज हो सकता है क्या, बेटों ने तो मुझे बेकार समझ लिया है, वे तो मुझे कहीं दिखाते नहीं हैं?”
सुशील ने सहजता से कहा, “आइए चाचा। दर्द चाहे किसी का हो... इलाज सबका होता है।” रफीक की आवाज़ पश्चाताप से कांपने लगी, “बेटा! मुझे माफ कर देना, उस दिन मैंने तुझे बहुत अपमानित किया था।”
सुशील मुस्कराया, “चाचा, इंसान का मजाक उड़ाने से बड़ा कोई पाप नहीं। चाचा, आप बड़े है मेरे आप तब भी चाचा थे और आज भी हैं, माफी मुझसे नहीं अपने आप से मांगिए, आपने मुझे नहीं अपने आप को लांछित किया था। चाचा हमारे कपड़े गंदे भले ही हों, पर दिल नहीं होना चाहिए।” रफीक की आंखों से आंसू बह निकले और उन्होंने आगे बढ़कर सुशील को यह कहते हुए गले लगा लिया, बेटा, मैं तो उसी दिन से अपने आप को कोस रहा हूं।
सुशील ने अपना अपना क्लिनिक उसी मोहल्ले में खोला, जहां उसका बचपन बीता था। नाम रखा “गरीबों का अस्पताल।”
अस्पताल पर एक बोर्ड था, “कचरा बीनने वाले बच्चों और उनके मां-बाप के लिए इलाज, पूरी तरह मुफ्त।” उसे देखकर लोग आश्चर्यचकित भी होते और भावुक भी। एक दिन एक बच्चा, जिसकी बोरी कमर से लटक रही थी, हिचकिचाकर बोला, “डॉक्टर भैया, क्या मैं भी पढ़ सकता हूं?” सुशील ने उसके सिर पर हाथ रखा, “मैं भी तेरी तरह था... बस ठान ले कि कचरे के ढेर से भी सपने उठाए जा सकते हैं, मैं तेरी मदद करूंगा।” बच्चा मुस्कराता हुआ उत्साह से भर गया।
सुशील की बहन नेहा उसके अस्पताल में नर्स बनकर उसके साथ खड़ी थी। श्यामलाल जी खुश थे, रोज उसके अस्पताल पर आकर लोगों को गर्व से कहते, “देखो, मैं कहता था ना! परिश्रम कभी धोखा नहीं देता।” और सुशील हर बार यही जवाब देता, “चाचा... अगर आपने मेरा साथ देकर मुझे स्कूल जाने के लिए प्रेरित न किया होता तो आज भी मैं किसी गली में कचरे की बोरी लेकर घूम रहा होता।”
एक सुबह, हवा में हल्की ठंडक थी। सुशील क्लिनिक के भीतर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि सामने से वही कचरा गाड़ी गुज़री, जिसमें कभी उसने अपने बचपन को घसीटा था। उसने आंखें बंद की और धीरे से कहा, “बापू... आज आपका बेटा कचरे से नहीं, लोगों के दर्द से लड़ रहा है। आप देख रहे होंगे... मैं डॉक्टर बनकर आपके संकल्प को आगे बढ़ा रहा हूं।” एक आंसू उसके गाल पर ढुलक आया, पर यह आंसू दु:ख का नहीं, एक अधूरे बचपन के पूरा होने की गवाही था।
