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सुनहरी चेन वाली घड़ी

लघुकथा
चित्रांकन : संदीप जोशी
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अशोक जैन

बात सहज रूप से शुरू हुई थी-इस बार। पर बढ़ते-बढ़ते उसने उग्र रूप ले लिया था। गत दस वर्षों से चली आ रही संबंध की डोर यकायक उलझ गयी, जिसे सुलझाना असंभव-सा हो गया था।

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‘समय मिल गया आने का?’ बड़के ने प्रश्न किया।

‘पिछले दिनों बीमार रहा... फिर कुछ जीवन की अनियमितता। बस चाहकर भी न आ सका।’ छुटका संयत रहा।

‘तुमने चाहा कब है आना?’ दो-दो पोस्टकार्ड डालने के बाद भी चुप्पी क्यों?’

छुटका चुप रहा। बड़का अपने अंतस का आक्रोश उगलने लगा, ‘दो वक्त की मिलने लगी है न अब! बहुत बड़े हो गए हो!’

‘आप काम की बात करें तो बेहतर। मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है।’ छुटके का तमतमाया चेहरा देखकर बड़का क्षण भर को चौंका।

‘कैसे बोल रहा है आज?’

‘क्यों मैं नहीं बोल सकता क्या?’

‘किसलिए?’

‘ताकि आप यह महसूस कर लें कि दूसरे के भी जुबां होती है।’

‘तुम साफ-साफ क्यों नहीं कहते।

‘रहने दें आप। आज तक नहीं बोला मैं.... इसके मायने यह तो नहीं कि मेरा अस्तित्व ही नहीं है।’

‘क्या कहना चाहते हो तुम ?’ बड़के ने उबलते स्वर में पूछा।

‘गत दस वर्षों से सहता आया हूं... यहां तक कि हर तरह की जलालत भी। परंतु आज...’

‘आशे...।’ बड़का चिल्लाया।

‘चिल्लाओ नहीं भैया। यथार्थ कड़वा होता है। मझले ने घर बर्बाद कर दिया... फिर भी वह आपका भला और मैं... मां को अपने पास रखने के निर्णय के बाद इतना बुरा हो गया कि उस दिन भरी बिरादरी में मां को पागल और मुझे नाकारा साबित करने की कोशिश की गई। आखिर क्यों?’

बड़के ने महसूस किया कि बात आगे बढ़ने से उसका अपना मकसद अधूरा रह सकता है। स्वयं को संतुलित कर उसने कुछ कागज़ात लाकर उसके आगे रखते हुए कहा, ‘साइन दीज़ पेपर्स सो देट आई मे कलेक्ट मनी फ्रॉम द ऑफिस।’

छुटका क्षण भर को उन्हें देखता भर रहा। तभी भावज चाय की ट्रे लेकर आयी। उसके हाथ में बंद डिब्बी भी थी जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था एच.एम.टी.।

‘तुम्हारे भैया तुम्हारे लिये लाये थे, आशे। रख लो।’

छुटके की आक्रोशित आंखें आवाज़ की ओर उठीं। कलाई घड़ी की डिब्बी पकड़े भावज के हाथ की अंगुलियां कांपने लगी थीं।

छुटके ने पेपर्स अपने आगे खींचे और साइन घसीटते हुए कहा, ‘आगे से पोस्टकार्ड खरीदने की ज़हमत न उठाना भैया।’ कहकर उसने हाथ जोड़ लिए और उठ खड़ा हुआ।

बड़के ने देखा कलाई पर पहले से ही सुनहरी चेन वाली घड़ी मौजूद थी।

सीढ़ियों पर छुटके के उतरने की पदचाप स्पष्ट थी दोनों के लिए।

दीवार पर टंगे माउंटेड तैलचित्र का ऑयल पेपर तिड़कने लगा था।□

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