मनमोहन सहगल
भविष्य की चिंता प्राय: मनुष्य को विचारों की गहनता के चक्रव्यूह में प्रवेश तो दिलवा देती है किंतु बाहर आ सकने के मार्ग से वंचित ही रखती है। यही इस उपन्यास का केंद्रीय द्रष्टव्य है, जिसमें पं. प्रभास चंद्र चक्रवर्ती के तथाकथित डॉक्टर सुपुत्र सुधीर चक्रवर्ती को आजीवन चक्की के पाटों के बीच पिसता दिखाया गया है।
लेखक महेंद्र मधुकर का यह पांचवां उपन्यास है, जो है तो पुरुष प्रधान, किंतु इसमें स्त्री के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है। सुधीर की पत्नी सुजाता और पुत्री झरना मोह-माया के दो छोरों पर जीवन की डोर को अपनी ओर खींच रही हैं और क्रमश: समर्पण तथा अहम् का प्रतिनिधित्व करती हैं। जीवन में समर्पण के कारण सुजाता त्यागमयी मृत्यु को प्राप्त होती है और झरा विधुर पति के धन-सम्पन्नता को देखकर अहंवादी और दूसरों के प्रति लापरवाह हो जाती है। नारी का एक तीसरा रूप सुधीर की कॉलेज-संगिनी अनुभा में मिलता है, परिस्थितिवश, जिससे किया वादा भी सुधीर पूरा नहीं कर पाता; जबकि वह अपना सब कुछ सुधीर पर लुटाने को तैयार थी।
‘कस्मै देवाय’ की कथा विस्थापन-निरन्तरता का एक जयघोष है, जिसमें पं. प्रभास चक्रवर्ती को सपरिवार ढाका के निकट वैरागादी से पहले कलकत्ता के लिए निकलना पड़ता है, वहां से पाकिस्तान की आहट तथा मारकाट के कारण दुबक-दुबक कर जीने का प्राण-रस शेष करके पंडित मोशाय अंतत: दक्षिणेश्वर मंदिर की मूर्ति के सम्मुख दण्डवत होकर प्राण त्याग देते हैं। प्राण छोड़ने पर भी विस्थापन का अभिशाप पुत्र सुधीर के साथ आगे बढ़ता है और कर्तव्यनिष्ठ संबंधी सुशील को भी पटखनी दे देता है। सुधीर को उस अवस्था में कलकत्ता छोड़ कर बिहार के रतनपुर कस्बे में सुशील के ही छोटे भाई के पास शरण लेनी पड़ती है। बड़ा परिवार लेकर अब मकान बदलने की धक्का पेल शुरू होती है। वहां से गांगुली हवेली, शांतिलता की बाहरी झोपड़ी, अपना घर तथा चारों बच्चों के यथायोग्य टिकाव के साथ अपने को पुन: बिहार से दिल्ली के लिए विस्थापन-आदेश से बांधना पड़ता है। पत्नी सुजाता का भी साथ छूट जाता है, विस्थापित होने के दर्द को विधुरता का दर्द द्विगुणित कर देता है और बेचारा सुधीर पेड़ से पत्ते की भांति अपने को हवा के रुख पर छोड़ते हुए केवल इतना ही सोच पाता है कि वह जिस देवता के लिए है, वह स्वयमेव उसे प्राप्त करे, यही उसका अंतिम दाय होगा।
उपन्यासकार अंतत: सुधीर दा के मुख से कहलवाता है ‘मैं किसके लिए हूं? किस देवता का नैवेद्य हूं मैं? कस्मै देवाय? किस स्थान पर मेरा निवास होगा? कहां ठौर? कहां है मेरी वास-भूमि? भटकना बेकार है, यह प्रकृति ही है मेरा निवास। मुझमें, तुममें कोई फर्क नहीं।’
प्रकृति से एकाकारता संदेश है इस उपन्यास का। विस्थापन का दर्द इसी से कम हो सकता है। अपने को प्रकृति के आंचल में डालो और जान लो कि यह आंचल सार्वभौम है। उपन्यास में लेखक ने अनेकधा आप्त वाक्यों तथा औपनिषदिक चिंतन की झड़ी लगा दी है, शायद इसलिए कि वह पंडित मोशाय भास्कर चक्रवर्ती के चरित्र तथा उनकी सोच को आकार देना चाहता था। कई जगह तो ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक कतिपय उपनिषदों को सार-संग्रह प्रस्तुत करने में रुचि ले रहा है, जो कि ज्ञानवर्द्धक है।
मूलत: सन् 1947 में बंगाल तथा पंजाब के साथ जो विस्थापन का दंश जुड़ा और बीसियों वर्ष तक जिसका त्रास वहां के लोग भोग रहे हैं; उसी का प्रकारान्तर प्रस्तुत करना उपन्यास का उद्देश्य है। उपन्यास रोचक और चिंतन-कणिकाओं से भरा है।
पुस्तक : कस्मै देवाय लेखक : महेन्द्र मधुकर प्रकाशक : राजपाल एंड संस, नयी दिल्ली पृष्ठ : 176 मूल्य : रु. 250.