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अपनों के लिए

कहानी
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भाभी ने भैया का इंतजार करने के लिए कहा पर संदीप ने कहा वे व्यस्त हैं, उन्हें काम करने दें। संदीप बहुत भारी मन से कभी वापस न आने के लिए बाहर निकला और दो बंद आंसू नीम दादा को चढ़ा कर रिक्शे में बैठ गया। मन में माता-पिता के साथ अनजाने में किए अपराध के बोध के साथ संदीप ने भाई-भाभी को अपने हाल पर छोड़ कर एक नए सुबह की आशा से आगे कदम बढ़ाया। जानता था कि समाज में कुछ तो रिश्ते हैं इसलिए चुप है यहां, चुप हैं इसलिए रिश्ते हैं।

प्रभा पारीक

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संदीप आज वर्षों बाद अमेरिका से घर लौटा था। कुछ आराम करने के बाद घर के बरामदे में आया तो उसे अपना ही घर पराया लग रहा था। याद आया पुराना घर कितना प्यारा, छोटा-सा था, जिससे उसकी यादें जुड़ी थीं। अब यह घर देखने में सुंदर और विशाल है, पर वैसा नहीं जैसा उसका बचपन का घर था। दोस्तों की पुकार उसके कानों में गूंजने लगी थी। आंखें आकाश में पतंगें तलाशने लगीं। पापा के स्कूटर की आवाज कानों में गूंज उठी।

भैया-भाभी के कहने पर उसने घर को नया और बड़ा करवाने हेतु अपनी सहमति के साथ आर्थिक मदद भेजी थी। उसे क्या पता था कि घर के साथ उसके बचपन की यादें ही बिल्कुल मिट जाएंगी। इस घर में अब उसके नाम पर जो कमरा था वो छोटा-सा एक कोने में बना था। भाभी ने स्वतः ही अपनी झिझक मिटाते हुए कहा था ‘तुम तो कभी-कभी ही आओगे, हमारे साथ ही हो न...’।

भाई-भाभी अभी सो कर नहीं उठे थे, पर उसका नींद का चक्र अभी बदल हुआ था। वह तो कितनी देर से सुबह होने का इंतजार कर रहा था। वह बाहर आ कर कुछ समय बिताने के लिए बरामदे में बैठ गया। उसने देखा घर के सामने नीम का पेड़ कैसा हो गया है।

उसके बचपन की यादों में वह अकेला ही बचा था। यह नीम का पेड़ अब उसके लिए महत्वपूर्ण हो चला था। संदीप मन ही मन बच्चा बनकर उससे बातें करने लगा, ‘नीम दादा क्या बूढ़े हो गए?’ संदीप के सवाल पर नीम दादा ने कहा जैसे, ‘नहीं बेटा, समय के थपेड़ों ने मुझे बूढ़ा बना दिया है। ये घर क्या बना, सारा रोड़ा सीमेंट मेरे इर्दगिर्द ही तो था। ये तो बेटा कल तुम आने वाले थे, इसलिए साफ करवाया गया है। मैंने तो कितने महीनों के बाद आज ही चैन की सांस ली है बेटा।’

संदीप रूआसे मन से अंदर आ गया। मां पिताजी की बड़ी-बड़ी तस्वीरों पर उसका ध्यान गया। याद आया इलाज के लिए पैसे भिजवाने के अलावा वह उनके लिए कुछ नहीं कर पाया। उनसे अंतिम समय तक नहीं मिल पाने के अफ़सोस के साथ ही जीवन निकालना होगा।

भाभी कहती रही ‘अभी कोई इमरजेंसी नहीं है, बस डॉक्टर का इलाज चल रहा है।’ भाभी से तो पैसे की जरूरत की बात ही अधिक होती थी। अम्मा के समय में भी ऐसा ही रहा। बड़े भाई अगर समय रहते बता देते तो वह जरूर आ ही जाता। मां का समाचार जब मिला तब वह एक्सीडेंट में पांव टूट बैठा था। किसी भी तरह आने की सोचता तो भाई की बात माननी भी तो जरूरी थी। ‘तेरे आने में व्यर्थ पैसा खर्च होगा, हम हैं न यहां! इससे बेहतर है पिताजी के इलाज में पैसा लगाया जाए।’ पिताजी का तो समाचार ही उसे बहुत देर से दिया था। जब वह अपने काम के सिलसिले में दूसरे देश में था। भैया ने कहा था अब जल्दी आकर क्या करेगा। अपना काम संभाल और अपने स्थान पर पहुंच कर टिकट बनवाकर आ जाना। उस समय वहां का वातावरण राजनीतिक अस्थिरता का चल रहा था। इसीलिए भैया चाहते थे कि वह अपनी सारी कमाई स्वदेश में जमा रखे जिससे सुरक्षित रह सके।

संदीप जब से आया है, भैया व्यस्त नजर आ रहे हैं। साथ बैठने का मौका जैसे टाल रहे हों और भाभी है कि संदीप के बाहर किसी से मिलने जाने की बात आते ही कोई न कोई बहाना बना देती है।

बीस दिनों के बाद संदीप ने आज बाहर जाने का मन बना ही लिया। संदीप ने छोटे भतीजे को भी साथ चलने के लिए कहा। भाभी ने उसे अकेले में बुलाकर कुछ कहा और भतीजा संदीप चाचा को मोटरसाइकिल पर लेकर निकल पड़ा।

रघु काका से मिलने की बात आई तो भतीजा बोला ‘उनसे मिल कर क्या करना है, वो बूढ़े हो गए हैं।’ श्याम बिहारी काका से मिलने की बात आई तो उनके घर के सामने होते हुए भी भतीजे ने कहा ‘हम फिर आएंगे।’ अंत में संदीप अपने खास दोस्त से मिलकर वापस आ गया। दोस्त लंबी बीमारी से उठा था, इसलिए उसे आराम की जरूरत होगी, यही सोच कर संदीप जल्दी वापस आ गया। संदीप ने महसूस किया कि अब भतीजा घर जाने की जल्दी में था।

घर में जैसे भाभी इंतजार ही कर रही थी। बाथरूम में हाथ धोने गया तो कान में आवाज़ आई, ‘रघु काका और बिहारी जी से तो नहीं मिलवाया ना।’ तब संदीप ने सुना भतीजा बोल रहा था, ‘नहीं, मैंने सफाई से टाल दिया।’ भाभी की आवाज़ थी ‘बस इनके जाने में दो दिन बचे हैं, वो भी निकल जाएं, इनको कुछ पता नहीं चलेगा।’

आज संदीप को समझ आ गया था कि दाल में कुछ काला है। भाई को फुर्सत न मिलना, भाभी का दूसरी-दूसरी बातें करते रहना, उसे अपने कमरे में भी अकेले न रहने देना। अगले दिन रोज की तरह संदीप सुबह जल्दी उठा, उसने निर्णय लिया और अपने कपड़े तलाशते समय उसने एक बड़ी अलमारी खोली। वो कपड़ों व अन्य सामान से भरी हुई थी। संदीप ने अलमारी बंद कर दी। उसे अचरज भी हुआ कि अलमारी के एक कोने में कुछ खाने का सामान, साबुन, जूते-चप्पल आदि भी ठूंस कर रखे हुए थे। संदीप कपड़े बदल कर रघु काका और बिहारी जी से मिलने अकेला निकल पड़ा। घर का दरवाजा उसने इस बात का ध्यान रखते हुए खोला था कि कोई आवाज न हो।

घर से निकलते ही सामने वाले माथुर अंकल का पोता मिल गया, जिसे संदीप ने सालों के बाद देखा था, पर वह संदीप को पहचान गया और नमस्ते करके रुक गया। उसी ने पूछा, ‘आपको कहीं छोड़ दूं क्या?’

संदीप ने कहा, ‘मुझे रघु काका के घर जाना है, मैं चल जाऊंगा।’

वो बोला चाचा ‘मैं उधर से ही निकलूंगा, आप बैठिए, पीछे में आपको छोड़ देता हूं।’

संदीप पांच सात मिनट में रघु काका के घर पहुंच गया। सुबह का समय था, रघु काका मंदिर जाने के लिए बाहर निकल ही रहे थे। वो संदीप को देख कर बाग-बाग हो गए। पूछा ‘कब आए?’ संदीप ने बताया ‘बीस दिन हो गए।’ तब उन्होंने अचरज से कहा ‘मुझे तुम्हारा बड़ा भाई रोज ही तो मंदिर में मिलता है, उसने बताया नहीं कि तुम आए हो।’ ‘परसों तो तुम्हारे समाचार भी पूछे थे, तब भी नहीं बताया कि तुम आए हो।’

रघु काका बैठ कर पिताजी की बातें बताने लगे। बातों-बातों में उन्होंने बताया आज दो साल हो गए तुम्हारे पिताजी को गए, पर ऐसा लगता है अभी भी हमारे साथ हैं। पिछले वर्ष से तो रमेश मकान का काम करवा रहा है। उसके दो साल पहले तक उसके नए मकान का काम चल रहा था। तुम्हारे पिताजी जिस वर्ष गुजरे, उसी के चार महीने बाद तो रमेश ने प्लाट खरीदा था। वो बेचारे तो सर्दी-गर्मी अपना समय घर के सामने वाले नीम के नीचे ही अपना समय बिताते रहे।

पूरे अधिकार से रघु काका ने संदीप से कहा था, ‘तुमने भी बेटा उनकी कोई खबर नहीं ली।’ संदीप अचरज से उनकी बातें सुनता रहा। पर संदीप के हाव-भाव में रघु काका को अचरज हुआ, तो बुजुर्ग रघु काका सब समझ गए। उन्होंने संदीप को अंदर बुलाया, बिहारी जी को भी वहीं आने का फोन किया और संदीप को पूरी बात बताई कि कैसे तुम्हारे माता-पिता तो सदा स्वस्थ ही रहे। बेटे-बहू का सारा काम करते रहे थे। मलेरिया हुआ और तुम्हारे पिताजी इलाज की कमी से चल बसे और मां तो तुम्हारी हार्ट अटैक से चली ही गई थी।

संदीप का मन रोने-रोने को हो रहा था, अब उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। उसी समय एक युवक ने प्रवेश किया। रघु काका ने उसका परिचय कराया और संदीप को बताया कि यह तुम्हारे घर के ऊपर वाले कमरे में किराये पर रहता है। आजकल किसी कारण से मेरे घर पर रह रहा है, कह रहा था परसों चल जाएगा। संदीप की आंखों के सामने अभी कुछ समय पहले खुली अलमारी का दृश्य घूम गया।

आज उसे नीम के पेड़ की भावना समझ आई कि दरख्तों से रिश्तों का एक हुनर है कि जब जड़ों में ज़ख्म लगते हैं तो टहनियां भी सूख जाती हैं। समझदार संदीप बिना कुछ बोले घर आ गया। घर आकर भाभी ने नाश्ता दिया, उसने बिना कुछ कहे नाश्ता किया और अपना सामान समेटने लगा। भाभी ने उसे सामान समेटते देखा तो घबरा गई, पूछा ‘कल जाने वाले थे, आज ही क्यों सामान समेट रहे हो?’

संदीप ने भारी मन से बताया ‘उसको कोई जरूरी फोन आ गया है, इसलिए आज ही दिल्ली के लिए निकलना होगा। उसे टिकट और जाम भी करना है।’

भाभी ने भैया का इंतजार करने के लिए कहा पर संदीप ने कहा वे व्यस्त हैं, उन्हें काम करने दें। संदीप बहुत भारी मन से कभी वापस न आने के लिए बाहर निकला और दो बंद आंसू नीम दादा को चढ़ा कर रिक्शे में बैठ गया।

मन में माता-पिता के साथ अनजाने में किए अपराध के बोध के साथ संदीप ने भाई-भाभी को अपने हाल पर छोड़ कर एक नए सुबह की आशा से आगे कदम बढ़ाया। जानता था कि समाज में कुछ तो रिश्ते हैं इसलिए चुप है यहां, चुप हैं इसलिए रिश्ते हैं।

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