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दाना-पानी

लघुकथा
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चित्रांकन संदीप जोशी
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घर के बाहर लगे नीम के पेड़ की घनी शाखाओं में चुपचाप बैठा नर गौरैया एकाएक बोल उठा, ‘अरी भाग्यवान! नीचे देख रही हो खाली पड़े बर्तन।’

‘हां प्रिय, आज बाजरे और पानी के दोनों बर्तन खाली हैं!’

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‘पता नहीं क्या हुआ? दादा जी भूलने वाले लोगों में तो नहीं हैं!’ रुआंसा-सा स्वर उभरा।

तभी एक शाखा पर उभरी निंबोली बोल उठी, ‘कई दिनों से मुझे तोड़ने भी नहीं आ रहे हैं। अच्छा लगता था जब वे मुझसे बतियाते थे और कहते थे—री कड़वी! बहुत गुणकारी है तू!!’

‘क्या हुआ आज? दादा जी तो ठीक हैं न!’

‘शायद नहीं! वे घर छोड़कर जा रहे हैं। कल कहते सुना था मैंने।’ निंबोली बोली।

‘कहां?’ नर गौरैया के स्वर में वेदना थी।

‘पता नहीं!! तबियत खराब होगी?’

घर के अंदर से आ रही जोर-जोर की आवाजों ने उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। दादा जी का लड़का चिल्ला रहा था किसी पर।

‘यह तो रोज हो रहा है यहां आजकल! कुछ दिनों से!!’ निंबोली ने स्पष्ट किया।

तभी दरवाजा खुला और दादाजी अपना एक बैग लगभग घसीटते से बाहर निकले। चीं... चीं... चीं... गौरैया ने उनका ध्यान अपनी ओर खींचा। वे आंखों में आंसू भरे उसकी ओर देखकर बोले—

‘मैं जा रहा हूं, चीं-चीं! अपने नये घर कभी न लौटने के लिए! तुम भी जाओ कहीं और। अब तुम्हारा अन्न जल उठ गया है यहां से! जैसे मेरा...’

नीम की सभी शाखाओं ने तेज-तेज डोलकर जैसे अपना विरोध जताया। गौरैया का जोड़ा कुछ देर तक अपने को टिकाये रखने की कोशिश करता रहा। और अंततः दोनों उड़ चले एक नया ठिकाना खोजने के लिए।

अन्न और जल के दोनों खाली पात्र एक-दूसरे को ग़मगीन नज़रों से निहार रहे थे।

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