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अहीरवाटी की लोक पहेलियां

पुस्तक समीक्षा
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सत्यवीर नाहड़िया

लोक जीवन में पहेलियों का प्राचीन काल से ही एक विशिष्ट एवं मौलिक महत्व रहा है। अहीरवाल क्षेत्र की समृद्ध लोक संस्कृति में ‘फाली बूझणे’ और ‘फाली आडणे’ की एक अनूठी परंपरा रही है, जिसमें हमारे अनपढ़ बुज़ुर्ग भी अपने बौद्धिक कौशल के बल पर पढ़े-लिखों से अधिक गुणी सिद्ध होते आए हैं।

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मोबाइल युग की यह पीढ़ी समय के साथ इस परंपरा से विमुख होती जा रही है। ऐसे समय में वरिष्ठ साहित्यकार समशेर कोसलिया ‘नरेश’ द्वारा इन अमूल्य फालियों का संग्रह तैयार किया जाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इस संग्रह में 333 लोक पहेलियों (फालियों) को उनके उत्तर (फल) सहित प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने अपनी रचनात्मक और बौद्धिक दक्षता से अनेक नई पहेलियां भी गढ़कर संग्रह में सम्मिलित की हैं।

इस संग्रह की एक प्रमुख विशेषता इसकी अहीरवाटी बोली की सौंधी महक है, जो इसकी रोचकता और आत्मीयता को और भी बढ़ा देती है। फाली आडणे (पहेली पूछने) की कुछ बानगियां देखें :-

सौ मन को लकड़ो, उहं पै बैठ्यो मकड़ों, दिन में रती-रती खावै, तै उहंनी कैक दिना म्हं खावै/एक जेवड़ी बीस हाथ की सै,एक दिन में एक हाथ काट्यां तै कैक दिनां म्हैं

कट ज्यागी/ नौ अर तेराह बाईस,घाल्या छ: काढ्या अठाईस,कैक बच्या/ बीरबान्नी अपणा घरआल़ा नै कहं रूप म्हं ना देख सके/ हरियाणा की वा कूणसी विधानसभा सै ज्हंको हिंदी म्हं नाम उल्टो अर सुल्टो एक हे सै/ वो नाज कूणसो सै जो उघाड़ो पाक्या करै/ एक झाकरा म्हं आठ सेर घी सै, ताखड़ी-बाट कोन्या।

एक पांच सेर की अर एक तीन सेर की हांडी रीती सैं। च्यार-च्यार सेर बांटणो सै, बांटो/ कूणसो नवाब सांगी बण्यो आदि-आदि।

संग्रह की पहेलियों में एक बड़ा वर्ग गणित पर आधारित है। इसके अतिरिक्त कुछ सामान्य ज्ञान पर, तो कुछ लोक व्यवहार पर आधारित हैं। सभी पहेलियां मनोरंजन के साथ-साथ मस्तिष्क की सक्रियता बनाए रखने में भी सक्षम हैं।

इन पहेलियों में कुछ लोक प्रचलित हैं, तो कुछ लेखक की मौलिक रचनात्मकता का परिणाम हैं। कुछ पहेलियां एक वाक्य की हैं, वहीं कुछ एक पृष्ठ लंबी भी हैं। यही बात उनके उत्तरों पर भी लागू होती है—कुछ का उत्तर एक-दो शब्दों का है, तो कुछ के लिए पूरे पृष्ठ की व्याख्या आवश्यक हुई है। इससे पहेलियों के स्वरूप को समझना सहज हो जाता है।

यद्यपि संग्रह में सामान्य ज्ञान आधारित पहेलियों की तुलना में यदि पारंपरिक, लोक में पगी फालियों की संख्या और अधिक होती तो यह और प्रभावशाली बन सकता था।

पुस्तक : फाल़ी का फल़ लेखक : समशेर कोसलिया ‘नरेश’ प्रकाशक : आनंद कला मंच पब्लिकेशन, भिवानी पृष्ठ : 152 मूल्य : रु‍़ 400.

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