धर्मपाल महेंद्र जैन
एक ज़माना था नई दिल्ली का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा शांत रहता था। कम यात्री होते थे और कम उड़ानें। न कतारें होती थीं न भीड़। अब हवाई अड्डा, बस अड्डे जैसा बन गया है, लोग ही लोग। मन ही मन बुदबुदाया अजित। हवाई जहाज बसों की तरह ठसाठस भर जाते हैं। जिधर देखो उधर फ्लाइटों के उड़ने की उद्घोषणा होती रहती है। कभी-कभी तो एक खनक भरी उद्घोषणा खत्म नहीं हो पाती कि किसी दूसरे की भारी आवाज़ उसे दबा जाती है। जैसे बस अड्डे पर बुकिंग एजेंट चिल्लाते हैं, चलो आगरा, चलो मथुरा। यहां लाउडस्पीकर पर उद्घोषक बोलते हैं, फ्लाइट टू लंडन, फ्लाइट टू न्यूयॉर्क, फ्लाइट टू नैरोबी। इसी के चलते अजित उड़ान के तीन घंटे पहले यहां आ गया कि सब समय से हो जाए। अजित ने पांच सौ रुपये का नोट निकाला और सामान लपेटने वाले रैपर को दे दिया। वह अपने बड़े सूटकेसों पर अक्सर ही पारदर्शी प्लास्टिक का आवरण चढ़वा लेता है ताकि हवाई जहाज के पोर्टरों की लापरवाही से सूटकेसों की टूट-फूट का खतरा कम हो।
कार्ट पर दोनों सूटकेस चढ़ा कर वह चेक-इन करने के लिए एयर कनाडा का काउंटर खोजने लगा कि उसकी निगाह एक बुज़ुर्ग सिख दम्पति पर पड़ी। दोनों अपने सामान से भरी कार्ट को धका रहे थे, पर खुश थे। विदेश जाने के उत्साह में उन्होंने भी ज़रूरत से ज्यादा सामान भर लिया था। पांच साल का बच्चा बुज़ुर्ग की कमीज़ पकड़कर साथ-साथ चल रहा था और जगमग एयरपोर्ट के ऊंचे-बड़े हॉल अचंभे से देख रहा था। सूटकेस पर पते के बड़े-बड़े स्टीकर चिपके थे जिन पर इनके गंतव्य का स्थान ब्रैम्पटन, कनाडा लिखा था। समझदारी की थी उन्होंने जो सूटकेसों पर अपना नाम-पता लिख दिया। उड़ान से जब सामान वापस लेने की बारी आती है, कई बार अपना सामान भी नहीं पहचाना जाता। एक जैसे लोकप्रिय रंग और आकार के कई सूटकेस होते हैं और कुछ यात्री जल्दबाजी में किसी दूसरे का सामान उठा ले जाते हैं। अजित को यह जानकर खुशी हुई कि हवाई अड्डे की इस भीड़ में उसे टोरंटो जाने वाले तीन सहयात्री मिल गए, जिन्हें भी यह आशा थी कि आज टोरंटो फ्लाइट जाएगी। अन्यथा, उड़ानों का क्या भरोसा कब-कौन-सी निरस्त कर दी जाए और यात्रियों को एयरपोर्ट के फर्श पर शरण लेनी पड़े।
अजित ने अंदाजा लगाया कि एयर कनाडा के काउंटर पर उनके आगे सौ लोगों की भीड़ होगी। हर जगह भीड़ देखने की ऐसी आदत हो गई है कि कहीं भीड़ नहीं दिखे तो कुछ गड़बड़ होने का शक हो जाता है। चार-पांच चक्कर में यात्रियों की लाइनें धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थीं। उसे लगा आध-पौन घंटे में वह अपने सूटकेस काउंटर पर जमा करा सकेगा। एक बार भारी सामान जमा हो जाए तो लैपटॉप और छोटे सूटकेस के साथ एयरपोर्ट की दुकानों में ड्यूटी-फ्री सामान को देखने का लालच जाग जाता है। ‘ड्यूटी-फ्री’ से आभास मिलता है कि सामान टैक्स मुक्त मिलेगा, पर चीजें उठा कर कोई कमजोर हृदय वाला दाम देख ले तो वहीं बेहोश हो जाए।
की तू कनेडा जा रिहा है? पीछे खड़ी पंजाबी महिला की आवाज थी।
जी, टोरंटो ही जा रहा हूं।
अजित अब अपनी कतार में तिरछा खड़ा हो गया। टेढ़े खड़े रहो तो आगे बढ़ती कतार पर नज़र बनी रहती है और पीछे आ रहे यात्रियों से अस्थाई रिश्ते बनने लगते हैं। बातचीत होती रहे तो कतार में पसरी संवादहीनता की दीवार टूट जाती है। मौका मिलते ही सामानभरी कार्ट पहले आगे बढ़ती है, यहां आदमी उसके पीछे-पीछे चलता है। खड़े-खड़े ताका-झांकी करते हुए अजित ने दम्पति से पूछ ही लिया
क्या यह आपका बच्चा है?
जी, यह हमारा पोता है। इस बार पुरुष ने मुंह खोला।
बातें चल निकलीं। बातों के साथ यही होता है कि बातें करते जाओ तो वे बढ़ती जाती हैं। सारे सुख और दुख शब्दों की लहरों पर बैठ जाते हैं और एक-दूसरे के मन तक बहने लगते हैं। जिनको गप्पें मारना नहीं आतीं, वे कतारों में खड़े-खड़े यह कौशल सीखने लगते हैं। बेसिर-पैर की गप्पें मारना नहीं आए तो टाइम पास करना मुश्किल हो जाए। एयरपोर्ट पर अधिकतर लोगों को यही करना होता है। बातों ही बातों में अजित को पता चल गया था कि महिला का नाम जसवंत कौर और पुरुष का नाम सतनाम सिंह है। वे बठिंडा के पास के रहने वाले हैं। पहली बार हवाई जहाज में बैठेंगे। उन्हें आकाश में उड़ने से डर लगता है किंतु पोते को पैराशूट पहन कर नीचे उतरना है। उनका बेटा टोरंटो के पास बसे ब्रैम्पटन शहर में रहता है। वह एक ट्रैकिंग कंपनी में आपरेटर है और बहू ग्रोसरी स्टोर में मैनेजर। अजित की मुस्कान चौड़ी हो जाती है। कनाडा देश ही ऐसा है। किराने की दुकान में सामान जमाने वाले को भारत में भले नौकर कहते हों, कनाडा में उसे मैनेजर कहा जाता है। दुकान मालिक को यहां भले सेठ या मालिक कहते हों, कनाडा में तो वह अपनी कंपनी का प्रेसिडेंट ही कहा जाएगा। आदमी भले ट्रक ड्राइवर हो, पर उसका वेतन प्रोफेसर से ज्यादा होगा। वहां मेहनत की कद्र है, चमचागिरी करके ऐश चाहने वाले को कोई भाव नहीं देता। कहने को अजित खुद भी सुरक्षा गार्ड है, पर वह चालीस माला बिल्डिंग का सिक्योरिटी चीफ है।
जसवंत कौर बातूनी थीं। बठिंडे जिले का इतिहास और भूगोल एक करते-करते उसने बताया कि उनका पोता एक साल का था तबसे उनके पास रह रहा है। उसके मम्मी-पापा उसे यहां इसलिए छोड़ गए थे ताकि बच्चा दादा-दादी की देखरेख में बड़ा हो, अपने संस्कार सीखे, हिंदी-पंजाबी सीखे, कनाडा में रहेगा तो अंग्रेजी कभी भी सीख लेगा। बेटा-बहू कहते हैं कि वहां पले-बढ़े अंग्रेज बच्चे जवान होते ही उनके माता-पिता का घर छोड़ कर चले जाते हैं। अजित नादान दादी-अम्मा के भोलेपन पर हंसना चाहता था। वह हकीकत बताना चाहता था कि कई कामकाजी मध्य वर्गीय परिवार अपने छोटे बच्चों को पालन-पोषण के लिए उनके माता-पिता के पास भारत में छोड़ जाते हैं। कनाडा में छोटे बच्चे के लिए डे-केयर और नर्सरी जैसी सुविधाएं बहुत महंगी हैं, महीने की फीस बारह सौ डॉलर से अधिक हो जाती है। एक-दो महीने की बात हो तो दम्पति कुछ समझौते कर लें, पर यह तो तीन-चार साल जितना लंबा समय होता है कि बच्चा कुछ बड़ा हो जाए तब उसके माता-पिता अपने नियोक्ता से कामकाज के समय में थोड़ी अदला-बदली करवा लें। पश्चिमी देशों में कमाई अधिक है तो पालन-पोषण संबंधी खर्चे भी अधिक हैं। पोषण क्या हुआ, शोषण हो गया। अजित को बुरा लगा कि माता-पिता की आर्थिक कठिनाइयों का दर्द इस छोटे बच्चे को झेलना पड़ा। अब यह बच्चा स्कूल जाने लायक हो गया है तो जरूर इसके माता-पिता चाहते होंगे कि वह कनाडा में पढ़े।
परत-दर-परत, पारिवारिक राज़ खुलने लगे। हम भारतीय कितनी जल्दी अपनी जन्मपत्री अनजान लोगों के सामने खोल देते हैं। कहीं से सहानुभूति की हल्की-सी बयार मिले तो आंखें भीग जाती हैं। ऊपर से, किसी को अपने बारे में कुछ बताएंगे तो अपनी हैसियत से बढ़-चढ़ कर ही बताएंगे। जहां पानी नहीं होगा वहां कुआं खोद देंगे, और फिर भगवान से प्रार्थना करेंगे। सतनाम और जसवंत अपने परिवार की छोटी-छोटी बातों का फुग्गा फुलाते रहे तो अजित से भी नहीं रहा गया। उसने जिज्ञासावश पूछ ही लिया-सनी का जन्म भारत में हुआ था या कनाडा में?
जी कनाडा में। यह बताते हुए सतनाम की आंखें चमक उठीं कि उसका पोता कैनेडियन नागरिक है। कुछ क्षणों के लिए अजित की आंखों में कनाडा में बसा उसका परिवार झांक गया, उसका नाती घूम गया, बेटी और पत्नी आ गयीं। घर से दूर रहो तो नजदीकी लोग अधिक याद आते हैं।
जिस गति से बातें आगे बढ़ रही थीं, काश! प्रतीक्षारत यात्रियों की कतार भी उसी गति से आगे बढ़ पाती। अजित देख पा रहा था कि उनके पीछे की कतार अब बेहद लंबी हो गई थी, इतनी लंबी कि शायद पूरा गांव कतार में लग गया हो। ऑनलाइन चेक-इन करने पर भी अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं में सामान जमा करने के लिए लंबी कतारों में खड़ा रहना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की प्रक्रिया बहुत उबाऊ, जटिल और जोखिमभरी है, यह ख्याल अजित को डरा गया। सनी नाबालिग है, कनाडा का नागरिक है और उसके भारतीय दादा-दादी वीज़ा लेकर भारत से कैनेडा जा रहे हैं। बच्चे के माता-पिता की संयुक्त अनुमति के बिना नाबालिग बच्चा किसी और के साथ कैसे जा सकता है, फिर वे उसके दादा-दादी ही क्यों न हों! इमिग्रेशन अधिकारियों ने दादा-दादी के साथ बच्चे को जाने से रोक दिया तो! रिश्ते, केवल रिश्ते हैं, वे कानूनी दस्तावेज़ों का विकल्प नहीं बन सकते।
अजित खुद में सिहर गया। वह पसोपेश में था कि इस बुज़ुर्ग दम्पति से यह पेचीदा प्रश्न पूछे या नहीं! कहीं वे उसके प्रश्न से डर गए तो! कानून का अज्ञान भयावह होता है, ऊपर से कानून अंधा जो ठहरा, ऐसी परेशानियां लेकर आता है कि आदमी सुध-बुध खो बैठता है। अजित और काउंटर के बीच लगभग दस मिनट की दूरी बची थी। उससे रहा नहीं गया। उसने आखिर पूछ ही लिया, सतनाम जी क्या सनी के मम्मी-पापा ने आपको कोई दस्तावेज़ भेजे हैं कि आप सनी को अपने साथ कनाडा ले जा सकते हैं?
हमारा पोता है जी, हमारी मर्जी, हम जहां चाहें वहां ले जाएं इसे। जसवंत कौर तुनक कर बोली।
अजित भौंचक्का रह गया। किसी बुज़ुर्ग को उसके भले की बात बताओ तो भी वह शक करने लगता है। कभी-कभी यह संदेह अवांछित टिप्पणियां करवा देता है। उसे एकबारगी लगा, पीढ़ियों के बीच अविश्वास की धारणा शायद अपनी जड़ें मजबूत कर रही हैं। उसने मुस्कुराते हुए सतनाम की ओर दृष्टि डाली। उसे लगा सतनाम उसके प्रश्न की गंभीरता समझ जाएगा और उसकी फीकी हंसी माहौल को थोड़ा हल्का कर देगी।
सा’ब हमारे बेटे ने हमको ऐसा कुछ नहीं कहा। उसी ने हमारे वीज़ा लगवाये, उसी ने टिकट बनवाये और हमें भेज दिए। हमने तो फोटो खिंचवाया और दस्तख्त कर दिए बस सा’ब जी। अब जो हो सो हो, सतनाम वाहे गुरु।
अजित के दिमाग में आने वाला खतरा घूम रहा था। उसने सुना था विकास बलि मांगता है। विकसित देश में अपने परिवार को देखने की चाह वाले यदि ये बुज़ुर्ग तकनीकी कारण से आज यहीं अटक गए तो उनकी कठिनाइयां बहुत बढ़ जाएंगी। यह बात अजित के मन को द्रवित कर गई। वह सनी की जगह अपने नाती को देखने लगा। यदि वह अपने नाती को अंतर्राष्ट्रीय यात्रा पर ले जा रहा होता तो उसे उसकी बेटी और दामाद ने पासपोर्ट और वीज़ा के अलावा नोटरी द्वारा प्रामाणित एक अनुमति पत्र दे दिया होता। उसका दिमाग इस संभावित खतरे से निपटने की योजना बनाने लगा। उसका अनुभव किसी की परेशानी कम कर सके तो कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए। उसने सतनाम के परिवार को कतार में अपने आगे कर दिया, ताकि ज़रूरत पड़ने पर वह उनकी मदद कर सके। बिना किसी प्रत्याशा के और बिना अपना ज्ञान बताए किसी ज़रूरतमंद की मदद करने में जो मधुर आनंद है, उससे अजित को आंतरिक खुशी मिल रही थी।
जब सतनाम का क्रम आया तो अजित मित्र के रूप में उनके परिवार के साथ हो लिया। चेक-इन एजेंट ने वीज़ा व पासपोर्ट देखते हुए जब सनी के कैनेडियन पासपोर्ट को अलग रखा तो उन सबकी धड़कनें बढ़ गईं। जब अप्रत्याशित चीज़ें घटने लगती हैं तो सारे देवी-देवता याद आने लगते हैं। क्या मालूम किसकी कृपा दृष्टि पड़ जाए। एक अकेली चेक-इन एजेंट सहज थी। प्रश्न पूछना और उनके उत्तरों को अपने कंप्यूटर में दर्ज करना उसका रोज़ का काम था। उसने सतनाम की ओर मुखातिब हो कर पूछा…
सर, सनी के पैरेंट्स कहां हैं।
कनाडा में।
आप सनी के कौन लगते हैं?
मैं दादा और ये दादी।
आपके पास कोई दस्तावेज़ है जो ऐसा बता सके?
ना जी ऐसा तो कोई दस्तावेज़ नहीं है।
चेक-इन एजेंट ने अपने अधिकारी को काउंटर पर बुला लिया। जसवंत कौर के पसीने छूट रहे थे। सतनाम सिंह निःशब्द प्रार्थना में खो गये। काउंटर के पास बने कन्वेयर बेल्ट से उनका सामान उतारकर अलग रख दिया गया। अजित को लगा शायद वह अधिकारी को उनकी स्थिति समझा पाएगा। अजित ने सुझाव दिया कि वह सनी के माता-पिता को कनाडा फ़ोन करके उनका अनुमति पत्र, साथ ही सनी के पिता का कनाडा का पासपोर्ट एवं विदेशी भारतीय नागरिक वाले उनके पासपोर्ट की स्कैन कॉपी बुला सकता है। उनसे यह सिद्ध हो जाएगा कि जसवंत कौर और सतनाम सिंह सनी के पिता के माता-पिता हैं। एयर कनाडा के अधिकारी ने उसके आग्रह को धैर्यपूर्वक सुन कर कहा– ‘निर्णय करने का अधिकार इमिग्रेशन अधिकारियों को है। आप आप्रवासन जांच के लिए चले जाएं। इस बीच ये दस्तावेज़ अपने मोबाइल पर बुलवा लें। इनकी ज़रूरत कई जगहों पर पड़ सकती है।’ उन्होंने उनके बोर्डिंग पास जारी कर दिए तो सबकी धड़कनें धीरे-धीरे सामान्य होने लगीं। कम से कम पहला पड़ाव पार कर लेने का संतोष था।
इमिग्रेशन जांच के लिए भी लंबी लाइनें थीं, पर सामान से भरी कार्ट उनके साथ नहीं थी, सिर्फ साथ का ज़रूरी सामान था। आधुनिक टेक्नोलॉजी ने जीवन को कितना सरल बना दिया है। सुदूर कनाडा में बैठे सनी के माता-पिता से जो दस्तावेज़ चाहिए थे वे उन्हें सहज ही मोबाइल पर मिल गए। जांच के दौरान अधिकारी ने सारे दस्तावेज़ देखे। मोबाइल पर आए दस्तावेजों ने अपना जादू चला दिया। अधिकारी ने उनके पासपोर्ट और बोर्डिंग पास पर मुहर लगा दी। अब जो आप्रवासन संबंधी जांच होगी, वह टोरंटो की धरती पर होगी। मांगे जाने पर वहां सारे कागजात उपलब्ध कराना सनी के माता-पिता के लिए सरल रहेगा। अब उन्हें सुरक्षा जांच से गुजरना था। वे सुरक्षा जांच के लिए लंबी कतार में लग ही रहे थे कि एक सुरक्षाकर्मी ने इशारा कर उन्हें फास्ट-लेन में बुला लिया। बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुज़ुर्गों एवं उनके साथ जा रहे परिवारों को सामान्यतः यह रियायत मिल जाती है। बार-बार की जांचों से बुज़ुर्ग दम्पति घबरा गए थे, पर यह रियायत उनमें नया जोश भर गया थी। उनके चेहरे पर विदेश यात्रा की चमक लौट रही थी। सुरक्षा जांच की प्रक्रिया पूरी कर वे अब उड़ान के द्वार पर आ गए थे। रात का एक बज रहा था, तारीख बदल गई थी और जसवंत कौर की मक्की की रोटियों और सरसों के साग की खुशबू एयरपोर्ट के लॉन्ज में फैल रही थी।