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सहयात्री

बांग्ला कहानी
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चित्रांकन : संदीप जोशी
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उतावलेपन का गुब्बारा फूटते ही अंदर से सहम गई रम्याणी। बिना कारण उस व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार किया। वह क्या द्वैपायन है कि उस पर जोर दिखाने का अधिकार है उसे? एक अनजाना, अनपहचाना व्यक्ति... आखिरकार वह उसकी बेटी को संभाले ही क्यों? कुछ अधिक नहीं हो गया क्या उससे? सॉरी बोल दे क्या?

सुचित्रा भट्टाचार्य

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राजधानी एक्सप्रेस ठीक पांच बजे समय पर छूटी। काले कांच के उस पार भाई-भाभी के अस्पष्ट हिलते हाथ आंखों से ओझल होते ही रम्याणी संभल कर बैठ गई। जिसका डर था, अंततः वही हुआ। ऊपर का बर्थ मिला। वैसे भी ट्रेन में ऊपरी बर्थ का सोचते ही वह अस्थिर हो उठती है। उस पर आज साथ में तीन साल की नटखट बेटी है। अंतिम समय में टिकट के लिए ट्रैवल एजेंट के आसरे होने पर शायद ऐसा ही होता है।

अपना बैग खोलकर रम्याणी ने जंजीरनुमा ताले को निकाला। भइया ने स्टेशन पर खरीद दिया था ताकि बड़े सूटकेस को बांधा जा सके। देखा जाये तो इस ट्रेन में चोरी-चकारी का डर नहीं, फिर भी सतर्क रहना उचित है।

चेकदार कुर्ते पर सफेद ओढ़नी को लपेटकर वह सामने झुकी और सूटकेस के हत्थे में जंजीर फंसाने की कोशिश करने लगी परंतु पहली बार में न हुआ। दूसरी बार भी नहीं। तीसरी बार सफलता मिलने के बावजूद जंजीर सरककर बाहर आ गई। ओफ्फ, निहायत ही जटिल कार्य है यह। अक्सर पति द्वैपायन या भइया में से कोई न कोई साथ होते हैं। उसे यह सब नहीं करना पड़ता है।

‘क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूं?’

रम्याणी ने चौंककर देखा। पास बैठे सज्जन ने पूछा था स्पष्ट बांग्ला में। मन ही मन सामान्य आश्वस्त होने के बावजूद उसने भावहीन चेहरे से कहा, ‘नो थैंक्स। मैं कर लूंगी।’

‘कर तो लेंगी निश्चय ही, पर अनावश्यक कष्ट क्यों?’ कहकर प्रायः जबरन उसके हाथ से जंजीरनुमा ताला ले लिया था उस व्यक्ति ने। ताला लगाकर खींचकर देखते हुए पूछा, ‘कहां तक जा रही हैं?’

‘दिल्ली।’

‘मैं भी दिल्ली जा रहा हूं।’ उसने विंती को देखकर आंखों के इशारे से पूछा, ‘आपकी बेटी है?’

‘हां।’

‘वेरी स्वीट’ कहकर उसने विंती के सिर पर हाथ फेरा।

रम्याणी हौले से मुस्कुरायी, ‘कुछ समय बीत जाने दीजिए, कितनी स्वीट है दिख जाएगा। नाक में दम करके रख देगी।’

विंती ने भौंहें चढ़ायीं। मां का कंप्लीमेंट शायद उसे पसंद नहीं आया। मुंह से कुछ न कहकर छोटी-छोटी उबासियां लेने लगी। शायद ट्रेन के शीतल माहौल में उसे नींद सताने लगी थी। मन ही मन सशंकित हुई रम्याणी। बेटी यदि अभी सो जाएगी तो रात भर उसे झेलना पड़ेगा।

धीमे लय में एक गीत बज रहा था कूपे में। साथ में टुकड़ों में घोषणाएं। अटेंडेंट मिनरल वाटर की बोतल दे गया। उसी ने आगे बढ़कर बोतल को ठिकाने पर टिका दिया था। रम्याणी को उठना नहीं पड़ा।

इस बार उसे इतनी प्रसन्नता नहीं हुई। उस व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता तो थी, पर अधिक गले पड़ने वाले मर्द उसे बिल्कुल पसंद नहीं। धन्यवाद कहना जरूरी नहीं समझा और अपनी बेटी के साथ व्यस्त हो गई।

बेटी के हाथ में पुस्तक थमायी और आंखें मूंद लीं। कुछ देर बाद उसने अपनी आंखें खोलीं और झेंप गई। बगल में बैठे सज्जन उसे ही देखे जा रहे थे। अजीब आदमी है? उसकी झुंझलाहट और बढ़ गई। वह ऐसी उर्वशी, मेनका, रंभा नहीं कि उसे अपलक निहारा जाये। उफ्फ, ऐसी दृष्टि अपनी ओर लगी देख आंखें बंद करके बैठना भी मुश्किल है।

बुलाने पर विंती झट से उठकर उसके पास खिड़की की ओर चली गई। रम्याणी को इस बार अस्वछंदता महसूस हुई। बेटी अभी तक ढाल की तरह उनके बीच में थी। उसके जाते ही वह व्यक्ति अब बिल्कुल पास था। हालांकि सीट लंबी है, आपस में टकराने की कतई संभावना नहीं है, फिर भी उसे कुछ ऐसा ही महसूस हुआ।

ट्रेन के परिचारक चाय-बिस्कुट दे गए। रम्याणी ने चाय की चुस्की ली। गर्म तरल से शरीर की शिथिलता कुछ कम हुई। व्यक्ति ने विंती को एक बिस्कुट थमा दिया था जिसे वह बिना संकोच खाए जा रही थी। आपस में बातें भी होने लगी थीं उनकी।

‘आपका नाम क्या है?’

‘अंकल।’

‘अरे, अंकल भी किसी का नाम होता है क्या?’

‘नहीं होता क्या?’

‘बिल्कुल नहीं। मैं आपको अंकल कह सकती हूं पर आपका एक नाम तो होगा। अच्छा नाम? जैसे कि मेरा प्रज्ञापारमिता है।’

‘अरे बाप रे, तुम्हारा इतना बड़ा नाम है? मेरा नाम तो बहुत छोटा है, ऋषि।’

लड़की हंसते हुए अपनी मां को देखने लगी। संभवतः यह नाम उसे अजीब लगा हो। रम्याणी ने जबरन अपनी हंसी रोकी। साथ ही लड़की को आंखों के इशारे से हंसने से मना किया।

विंती ने प्रश्न का दूसरा वाण फेंका, ‘अंकल, दिल्ली में क्या आप अपने पिताजी के पास जा रहे हैं ?’

‘नहीं तो, वहां मेरे पिताजी नहीं रहते।’

‘तो फिर कहां रहते हैं?’

‘ऊपर।’ उस व्यक्ति ने अपनी उंगली ऊपर उठायी।

अवाक‍् होकर ट्रेन की छत की ओर देखा विंती ने। ‘आपके पिताजी क्या ट्रेन की छत पर रहते हैं?’

‘ऊंहूं, उससे भी ऊपर। आकाश से भी ऊपर।’

‘ओ... मर गए हैं? ऐसा कहो न। किसी बुढ़िया की तरह उसने सिर हिलाया। फिर आंखें नचाकर बोली, ‘अब समझ में आया, आप दिल्ली घूमने जा रहे हैं?’

‘नहीं, नहीं। मैं काम के सिलसिले में जा रहा हूं।’

‘क्या काम है?’

‘यों ही, एक बेकार-सा काम है। मैं फेरीवाला हूं, तेल-साबुन बेचता हूं।’

‘ओ... तो आप भी फेरीवाले हैं? मेरे पापा भी फेरीवाले हैं। वे तेल-साबुन नहीं, दवाई बेचते हैं।’

रम्याणी की चाय छलक गई। कितनी बार पति से कहा कि बेटी के सामने खुद को फेरीवाला न कहा करे। वह जैसा सुनेगी, वैसा कहेगी। इससे मान-सम्मान रहता है क्या?

पर ऋषि समझ चुका था। हंसते हुए कहा, ‘आपके पति शायद मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हैं?’

बात न करना चाहते हुए भी रम्याणी ने झट से कहा, ‘नहीं, वे सेल्स मैनेजर हैं।’

रम्याणी ने बैग खोला। भाभी ने एक फिल्म पत्रिका दी थी, उसे ही उलटना शुरू किया। शायद वह ऋषि से बचना चाहती थी।

ऋषि ने तिरछी नज़रों से रम्याणी को देखा, ‘क्या कहती है आपकी मैगज़ीन?’

अब सहा नहीं जाता! बर्थ नहीं, कोच ही अगर बदला जा सकता।

फिर भी रम्याणी ने अपनी शालीनता बरकरार रखी। हंसकर कहा, ‘यही सब गॉसिप... जो रहता है इनमें...।’

देखते ही देखते बाहर घना अंधेरा उतर आया।

बाथरूम से निकलकर विस्मित होती है रम्याणी। ऋषिवर महाशय, सिगरेट फूंक रहे थे। उससे आंखें मिलते ही सकपकाते हुए नज़रें चुरा लीं। ऊंहूं, ये तो अच्छे लक्षण नहीं हैं। भृकुटि चढ़ाते हुए वह अपने स्थान पर आयी तो जैसे एक वज्रपात हुआ। विंती सीट पर नहीं थी। गई कहां? घबरायी हुई वह आसपास के कूपे में झांक आई। विंती कहीं नहीं थी। इसे पूछा, उसे अपनी चिंता दर्शायी, पर कहीं से कोई खबर नहीं मिली। जिधर ऋषि धूम्रपान कर रहा था, उसके विपरित दिशा में कोच के बाहर दौड़ी। लड़की का कहीं अता-पता नहीं था। दो कोच के बीच की जगह जोर-जोर से हिल रही थी। एक ओर से पर्दा फटा हुआ था, पर वहां कोई भी नहीं था जिससे कि पूछ सके कि लड़की रेलिंग पकड़कर उस ओर तो नहीं चली गई...? अचानक उसका दिल बैठने लगा। दूसरे कोच तक पहुंची, पर वह कहीं नहीं थी। क्या कोच के दरवाजों को ठेलकर इससे भी दूर जा सकती है?

रम्याणी की सांस रुकने लगी। हृदय जोर-जोर से धड़कने लगा। लगभग दौड़ते हुए वह पुनः कोच में लौटी। स्थिति जस की तस थी। तब वह दौड़कर ऋषि के पास पहुंची।

‘विंती कहां है?’ वह हांफ रही थी।

‘क्यों, सीट पर नहीं है क्या?’ ट्रेन में लगे ऐश ट्रे में सिगरेट बुझाते हुए ऋषि ने कहा।

‘क्या इधर नहीं आयी?’

‘नहीं तो, मैं जब उठकर आया था, वहीं बैठी थी।’

‘आश्चर्य है, आपके भरोसे लड़की छोड़ आयी थी और आप हैं कि उठकर चले आए।’ रम्याणी संयम खोकर खीझते हुए बोली, ‘अजीब आदमी हैं आप! इरेस्पॉनसिबल।’

ऋषि का चेहरा बुझ गया, ‘सॉरी, सॉरी। अभी देखता हूं।’

‘क्या देखेंगे आप? मेरी बेटी को कुछ हुआ तो क्या आप उसे लौटा पाएंगे?’

कुछ देर के लिए थम गए ऋषि। हैरानी भरी नज़रों से उसकी ओर देखा। फिर तेज कदमों से अंदर गए। उसके पीछे-पीछे दरवाजा ठेलते हुए रम्याणी।

कूपे के सामने आते ही ऋषि ने उंगली से इशारा किया, ‘यह रही आपकी बेटी।’

सचमुच! रम्याणी के जान में जान आई। ऊपर की बर्थ पर चुपचाप बैठी थी विंती। ट्रेन की हिलजुल में डोलती निर्विकार। पागलों की तरह इधर-उधर दौड़ते समय रम्याणी उस ओर देखना ही भूल गई थी। बगल में बैठे व्यक्ति की आंखों से ओझल न जाने कब वह ऊपर जा बैठी थी। अजीब बात है, वह इतनी बार इधर से होकर हैरान-परेशान दौड़ती रही, परंतु उसने एक बार भी नहीं पुकारा।

रम्याणी लगभग चिल्ला उठी, ‘बिना बताए वहां क्यों चढ़ गई?’

‘वाह रे, यही तो हमारी जगह है, थर्टी एट।’

‘डर नहीं है कोई? चढ़ते समय गिर जाती तो?’

‘अरे, यह तो बहुत आसान है मम्मी। तुम यों ही डर जाती हो। देखोगी, छलांग मारकर उतरूं?’

रम्याणी उसे रोकने ही जा रही थी कि उससे पहले ही ऋषि ने उसे थाम लिया और फिर से खिड़की के पास बिठा दिया।

उतावलेपन का गुब्बारा फूटते ही अंदर से सहम गई रम्याणी। बिना कारण उस व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार किया। वह क्या द्वैपायन है कि उस पर जोर दिखाने का अधिकार है उसे? एक अनजाना, अनपहचाना व्यक्ति... आखिरकार वह उसकी बेटी को संभाले ही क्यों? कुछ अधिक नहीं हो गया क्या उससे? सॉरी बोल दे क्या?

लज्जित रम्याणी ऋषि की ओर देख ही नहीं पायी। वे नक गंभीर और उदासीन हो गए थे। विंती भी उससे कोई बात नहीं कर रही थी। वातावरण बोझिल हो उठा था।

रात्रि-भोज यथासमय आ पहुंचा। खाने में विंती नानुकुर कुछ अधिक ही करती है। रोटी, भात, पुलाव कुछ भी उसे पसंद नहीं। आज किसी तरह तले चावल खा लिए। फिश-फ्राइ और चिकन भी थोड़ा-सा मुंह में डाला। खाते-खाते ही उस पर नींद हावी होने लगी। किसी तरह बाथरूम ले जाने के बाद लौटते ही वह सो गई।

रम्याणी बड़ी मुश्किल में फंस गई। सोयी हुई इस लड़की को अब वह ऊपरी बर्थ तक कैसे ले जाये? एक बार ऋषि की ओर जरा-सा देखा। वे आइसक्रीम खाने में मगन थे। क्या उसे अपनी मुसीबत के बारे में बताए? निश्चय ही न नहीं कहेंगे? अवसर नहीं मिला उसे। आइसक्रीम के खाली कप के साथ वे उठकर चले गए। लौटने में भी बहुत देर की। रम्याणी अधीर होकर प्रतीक्षा करती रही। भोजन के बाद कूपे में रोशनी बूझने लगी। धीमे स्वर में बातें हो रही थीं जो क्रमशः कम होती चली गईं।

ऋषि लौटे। लौटते ही पर्दा खींच दिया। बैठे नहीं, खड़े-खड़े पानी पीया। बोतल रखकर भी खड़े रहे।

कुछ संभलकर रम्याणी ने कुछ कहना चाहा कि वे बोल उठे, ‘एक रिक्वेस्ट करूं मैडम? अगर आपको बुरा न लगे तो...?’

रम्याणी ने नज़रें उठायीं।

‘अगर कृपा कर मेरे लिए ऊपर का बर्थ छोड़ दें...। लोअर बर्थ पर मुझे ठीक तरह नींद नहीं आती।’

रम्याणी हतप्रभ हुई। क्या सचमुच उसे असुविधा होती है या फिर उसे मुश्किल से निजात दिलाने के लिए खुद ही...?

तनावमुक्त रम्याणी बेटी के बगल में लेट गई। ऋषि ने अपना सूटकेस ऊपरी बर्थ पर रखकर पायजामा वगैरह निकाला और बाथरूम की ओर चले गए। अर्द्धतंद्रा में रम्याणी ने महसूस किया कि शराब की एक मृदु गंध के साथ लौटे हैं वे। आते ही ऊपरी बर्थ पर चले गए। गंध कूपे में फैल गई, एक लुप्त उच्छवास की तरह।

विरक्त होते हुए भी कुछ न कर पायी रम्याणी। लगा जैसे कृतज्ञता निभा रही हो। सो गई धीरे-धीरे।

मध्यरात्रि में उसकी नींद टूटी। ट्रेन डोल नहीं रही थी, रुकी हुई थी शायद इसी कारण। सिर उठाकर खिड़की की ओर देखा। गहन काले अंधेरे में कुछ नारंगी-सा आभास। कहां पहुंचे? क्यों रुक गई ट्रेन? सिगनल नहीं मिला क्या? शिथिल मन के साथ थोड़ा पानी पीया उसने। कोच की हल्की रोशनी लांघकर बाथरूम तक गई। लौटकर फिर से एक घूंट पानी पीया।

तभी उसकी निगाह अड़तीस नंबर बर्थ पर पड़ी। देह पर कंबल नहीं। खिसककर पायताने तक आ पहुंचा था। एक अजीब-सी मुद्रा में गुमटे सोये हुए थे वे। पर्दे के बीच से पैसेज के नीले प्रकाश का एक टुकड़ा अंदर आ रहा था। ऋषि के चेहरे का एक हिस्सा दिख रहा था। जैसे कोई अनुभवी सेल्समैन नहीं, नारी का साथ पाने को उत्सुक कोई लालची पुरुष नहीं, एक आत्मीय-परिजनहीन निराश्रय निःसंग मनुष्य असहाय सोया हुआ है। धत‍्, वह क्या सोच रही है? उसके शायद पत्नी बच्चे सभी हों, फिर भी न जाने ऐसा क्यों लगा उसे? उसका हृदय थरथरा उठा।

किसी सम्मोहन के वशीभूत रम्याणी ने कंबल खींचा और सलीके से ढक दिया उन्हें। ऋषि को अहसास तक नहीं हुआ।

द्वैपायन क्या यह जान पाएगा? क्या कोई भी जान पाएगा?

नहीं, यह क्षण सिर्फ रम्याणी के अकेले का है। सिर्फ उसका।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ’रत्नेश’

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