केवल तिवारी
मनुष्य में इच्छाएं हैं, कल्पना शक्ति है। इच्छाओं को विस्तार देने की कला है। क्या सभी का सुर एक-सा हो सकता है? अपनी-अपनी ढफली, अपना-अपना राग- यह भी तो प्रचलित धारणा है। ऐसे अनेक मनोभाव हैं, जीवन जीने की कला है, नियंत्रण है, उद्गार हैं। इन जीवन संदेशों की अभिव्यक्ति, उन पर साधी गयी चुप्पी का प्रभाव-दुष्प्रभाव के कुछ पहलू भले हम सब लोग जानते हों, लेकिन एक पैराग्राफ या कुछ वाक्यों में उनकी संपूर्णता को व्यक्त करना गागर में सागर भरने जैसा है।
ऐसा ही काम किया है डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति ने अपनी किताब ‘ज़िन्दगी की ख़ुशबू’ में। अनुवादक हैं लाजपत राय गर्ग। लेखक कभी गुस्से के मनोविज्ञान की चर्चा करते हैं तो कभी खुशी के विस्तार पर चर्चा करते हैं। ‘मनुष्य बनना’ नामक शीर्षक से शुरू इस किताब में कुल 42 छोटी-छोटी रचनाएं हैं। सहज और सरल भाषा में तैयार किताब का हर शीर्षक और उससे संबंधित लेख में निहित सीख विचारणीय है। सहयोग’ नामक रचना में लेखक के सवाल के अंदाज में एक पंक्ति देखिए, ‘बांटकर काम करना तथा सहयोग देना एक ही बात है?’ बात चाहे ‘परवाह’ करने की हो या फिर ‘संयम’ की। ‘सादगी’ हो या ‘संवेदनशीलता’, ऐसे अनेक विषयों के जरिये लेखक ने पहले सवाल उठाए हैं, फिर तर्क देकर उन पर टिप्पणी की है। हर टिप्पणी वजनदार है। कुछ विषय तो बहुत रोचक हैं, जैसे ‘स्वयं से प्रतियोगिता।’
कुल मिलाकर पुस्तक का प्रारूप खास है। हर विषय को कई बार आप महसूस कर सकते हैं। पाठक को लगेगा कि जैसे वह स्वयं से संवाद कर रहा हो। किताब की रचनाएं व्यक्तित्व निर्माण में सहायक साबित हो सकती हैं।
पुस्तक : जिन्दगी की खुशबू लेखक : डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति अनुवादक : लाजपत राय गर्ग प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर पृष्ठ : 200 मूल्य : रु. 275.