सुभाष रस्तोगी
शंकर लाल मीणा मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में जाने जाते हैं। उनके अब तक तीन व्यंग्य संग्रह, एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और एक राजस्थानी कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी सद्य: प्रकाशित कृति ‘मानव अभयारण्यों में स्त्री आखेट’ में दस धारदार व्यंग्य लेख संगृहीत हैं जो अपने समवेत पाठ में लेखक की इस चिंता को व्यक्त करते हैं कि हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।
वस्तुत: मीणा ने शंकर पार्वती के रूपक के माध्यम से सभी आर्यावर्त कहे जाने वाले भारत वर्ष के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर पाठक की अंतश्चेतना को उघेड़ती चली जाने वाली विचारोत्तेजक टिप्पणियां की हैं। हालांकि भारतवर्ष की खैर-खबर शिव को अपने गणों डमरू, तम्बरू, चित्रबल, विचित्रबल, द्विमुख, भैरव, भैरवी आदि के माध्यम से जब-तब मिलती रहती है, लेकिन इस बार शिव पार्वती के साथ अपनी आंखों भारत की वास्तविक स्थिति देखने के लिए कैलास पर्वत से प्रस्थान करते हैं। इस अवसर पर जब पार्वती अपने आवास, गृह की देखभाल, सुरक्षा की चिंता व्यक्त करती हैं तब इसी प्रसंग में नारद जी की यह टिप्पणी गौरतलब है, ‘इन दिनों आर्यावर्त में एक दुष्प्रवृत्ति पनप रही है, राजसत्ता जो है वह पर्वत, नदी, वन, कंदरा, उपवन, सरोवर… इत्यादि को नगर श्रेष्ठियों अथवा बहुराष्ट्रीय निकायों को स्थाई रूप से आवंटित कर देती है। वे मनमाने ढंग से इनका दोहन करने लगे हैं। मूल स्वामियों का इन पर से स्वामित्व समाप्त होता जा रहा है।’
नगर श्रेष्ठियों की हद दर्जे तक दोहन की इस कुप्रवृत्ति का नतीजा यह हुआ है कि इस देश में दो देश बन गये हैं… चमचमाती अट्टालिकाओं में रहने वाला सर्वसुविधा संपन्न इंडिया और कीड़े-मकोड़ों की तरह गजबजाते हुए दड़बों में रहने वाला भारत। शंकर लाल मीणा ने अपने इन लेखों की मार्फत दड़बों में रहने वालों, जिनके पास जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं, की यातना को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है।
‘पांखड के पोषक, विकलांगता के निर्माता’ लेख में पिछले दिनों हुए एक तथाकथित संत और उसके पुत्र के पाखंड का लेखक ने पर्दाफाश किया है तो ‘गोरक्षक वेषधारी मानव वधिक’ में इस तथ्य के रूबरू लाकर पाठकों को खड़ा कर दिया है कि गोरक्षक वेशधारी वास्तव में मानव वधिक है। ‘वंचितों की कुटिया में भोजन का स्वांग’ लेख में लेखक ने यह काबिलेगौर सवाल उठाया है ‘सीमा पर प्राण देने वालों को बलिदानी कहा जाता है, किंतु नगरों की भूमिगत मलनिकास प्रवाहिकाओं का सुचारु रूप से संचालन कर नागरिकों के जीवन को संक्रमण के संकट से रक्षा करने में प्राण देने वाले युवकों की स्मृति एक दिन भी नहीं रहती। संग्रह के शीर्षक लेख ‘मानव अभयारण्यों में स्त्री आखेट’ में निर्भयाकांड की प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
‘तेरह घड़ी, आठा रुग्णालय… और मौत’ लेख पढ़कर पाठक यह सोचने पर विवश हो जाता है क्या वास्तव में सरकारी अस्पतालों की स्थिति इतनी ही शोचनीय है। क्या सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के लिए प्राइवेट अस्पताल उत्तरदायी हैं? समग्रत: शंकर लाल मीणा की सद्य: प्रकाशित कृति ‘मानव अभयारण्यों में स्त्री आखेट’ में संगृहीत दसों लेख पाठक को आईना दिखाते हैं।
पुस्तक : मानव अभयारण्यों में स्त्री आखेट लेखक : शंकर लाल मीणा प्रकाशक : साहित्यागार धमाणी मार्केट की गली, जयपुर पृष्ठ : 215 मूल्य : रु. 400.