कमलेश भारतीय
सुगन चंद धीमान का काव्य संग्रह ‘सुरभि’ हर रंग और मिजाज की कविताओं का संग्रह कहा जा सकता है। इसमें इनके आर्टिस्ट की झलक मुखपृष्ठ के रूप में मिल जाती है तो कविता के अनेक रूप अंदर के पन्नों पर मिलते हैं— गीत, ग़ज़ल, दोहा, छोटी और लम्बी कविताएं। सारे रूप एक ही संकलन में जैसे यह उनके जीवन की अनुभव यात्रा और बहुआयामी व्यक्तित्व की पूरी यात्रा हो। कोरोना को इस वर्ष सबने महसूस किया और इससे व्यथित होकर सब रचनाकारों ने कुछ न कुछ रच डाला।
इनकी कविताओं में कोई तो चाहिए, राज रंग, फिर भी मैं चुप रहता हूं, भीड़, दुख की जड़, गुरु-दक्षिणा, रेत पर लिखी कविताएं, बातें, रिश्ते, लाॅकडाउन, आज कहीं मैं खो गयी, तुमको पाकर,और सांझी बातें आदि शामिल हैं जो याद रहने लायक हैं।
असल में यह संग्रह कवि सुगन के पूरा काव्य संसार जैसा है। इनके कुछ शे’र देखिए ‘तेरे घर आने जाने की आदत छोड़ दी/ हर किसी से रूठने मनाने की आदत छोड़ दी/ खुश रहो हर हाल में जैसे जहां रह सको/ समझना, समझाना, पुरानी आदत छोड़ दी…/
हां, बाबा नागार्जुन की कविता की मुख्य पंक्ति भी गूंजी है कोरोना के गढ़ में देखा में ‘बहुत दिनों तक चूल्हा सोया/ जेब बेचारी रही उदास/ पेट अग्न की तपन भयंकर/ भाग्य के बन गये दास। हल्का हल्का-सा यह खुमार भी देखिए ‘मैं आज प्रेम में कहीं खो गयी/ तेरे आंगन की मैं हो गयी…’
इस तरह सुगन अपनी कविताओं में देखे और पढ़े जा सकते हैं।
पुस्तक : सुरभि कवि : सुगन चंद धीमान प्रकाशक : सप्तऋषि पब्लिकेशंस, चंडीगढ़ पृष्ठ : 158 मूल्य : रु. 250.