कसीदाकारी
वह कढ़ाई नहीं थी, एक खुला हुआ आंगन बनाया था मां ने। वह कसीदाकारी मेरी आंखों के सामने सजीव हो उठी। वहां कौन नहीं था? लियाकत की मां अनसुरा चाची, नइमुल की बीवी हेना भाभी, टेरा सिद्दकी की बीवी दुलेहार और मुहल्ले की अन्य दूसरी औरतें। मां के अपने हाथों से बनाया गया यह आंगन हमारे घर के आंगन से भी कहीं बहुत बड़ा था और चारों ओर कोई दीवार भी नहीं थी।
हमीरुद्दीन मिद्या
अब्बा कहते हैं कि हम लोग जिस जगह पर रहे हैं, वहां कभी एक जलाशय हुआ करता था जो अब समाप्त हो चुका है और इसके आसपास थे धान के हरे-भरे खेत। धान ज्यों ही पकना आरंभ होता, नाला काटकर खेत का पानी जलाशय में बहा दिया जाता। कमल, कमलिनी, जलकुंभी और न जाने कितने प्रकार के जलीय घासों से भरा रहता था वह जलाशय। शीतकाल में सूखने पर दादाजी पंप लगाकर पानी निकाल देते और फिर कीचड़ से निकाल लाते कोइ, लैटा, पांकुल, जियोल, ईल जैसी कई तरह की मछलियां। उन सब मछलियों को केले के पेड़ के नीचे बने एक पानी के गड्ढे में रखकर उन्हें समय-समय पर पकड़कर खाते रहते।
कई ट्रॉलियां मिट्टी डालकर उस जलाशय का अस्तित्व समाप्त कर हमारे बाप-चाचाओं ने घर बनाया था। खेत अब कहीं दिखाई नहीं देते। चारों ओर बस्तियों बस गई हैं। दिन पर दिन लोगों की आबादी बढ़ती चली जा रही है। पुस्तैनी घरों को तोड़कर छोटे-छोटे संसार बस रहे हैं। फिर भी दुनिया में मिट्टी का परिमाण पहले की तरह ज्यों का त्यों है।
अब इस मोहल्ले को देखकर कौन कह सकता है कि कभी यह जगह आषाढ़ी धान से गमगमाती थी और शीतकाल में मुर्गाबियों का झुंड यहां उमड़ आता। सुबह-शाम पक्षियों का कलरव यहां सुनाई देता था और सारी रात सियार क्रंदन करते रहते।
जलाशय के किनारे ही एक खजूर का पेड़ भी था। धान काटने के लिए लोग आते तो इसी के नीचे बैठकर दोपहर को खाना खाते, आराम फरमाते। उसी खजूर के पेड़ के ऊपर बना था अब हमारा घर। इस नये घर में आने के बाद कहते हैं कि पिताजी कई दिनों तक सो नहीं पाए थे। पूछने पर कहते, पीठ पर कांटे चुभ रहे हैं। खजूर का पेड़ मानो जमीन फोड़कर बाहर निकल आने को कसमसाता हो।
हमारे घर के सामने एक खुला आंगन था। बगल में एक अंजीर का पेड़। दोपहर को रसोई-भोजन से निपटकर आसपास के घर की महिलाएं एक-एक कर, कढ़ाई-सिलाई का सामान लेकर उसके नीचे एकत्रित होतीं। कोई कपड़े पर कसीदाकारी करतीं, कोई उन से अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिए स्वेटर बुनतीं या फिर माथे की टोपी या जुराब। कोई अपनी विवाहिता बेटी को देने के लिए खजूर के पत्तों को लाल, हरे रंगों में डुबोकर चटाई-तलाई बुनतीं। किस रंग के बाद किस पत्ते से तलाई पर चांद-सितारे उग आएंगे और सज जाएंगे मक्का-मदीना-काबा शरीफ, यह सब मां-चाचियां अच्छी तरह जानतीं। किसी स्कूल-कालेज में उन्हें यह सब सीखने जाना नहीं पड़ता। मुंहजुबानी हिसाब लगाकर पत्ते गिनते-गिनते ऐसी कलाकारी कर डालतीं कि देखकर आश्चर्य होता।
फिर उस मजलिस में होने लगतीं दुनिया-जहां की बातें।
‘जानती हो, अमुक गांव के एक बच्चे को किसी हिंसक जंगली पशु ने खा लिया है।’
‘सचमुच?’
‘और क्या? तनिक भी झूठ नहीं है। लड़का बाप का बड़ा दुलारा था। बाप कहीं जाने लगता तो वह पीछे से रोने लगता। एक दिन वह खेत में धान काटने गया हुआ था और अपने कंधे पर बेटे को भी उठाकर ले गया। वहां उसे एक किनारे पर बिठाकर धान काटता रहा और फिर लकड़बग्घा आया और उसका गला दबोचकर ले गया। कुछ देर बाद बाप ने ध्यान दिया तो उसे वहां न पाकर आवाज देने लगा, परंतु बच्चा वहां होता तभी आवाज देता न। तब अपनी दराटी फेंककर वह उसे इधर-उधर ढूंढ़ने लगा और कुछ देर बाद उसे ताजे खून के निशान दिखे। दो-दो लकड़बग्घे बच्चे को नोच नोचकर खा रहे थे। बाप रे बाप! ऐसा दृश्य क्या आंखों देखा जा सकता है?
इस बात पर सबने अफसोस जाहिर किया। जिनकी गोद में बच्चा था, उन्होंने उसे अपने सीने से भींच लिया।
किसकी पत्नी अपने पति को धोखा देकर परपुरुष से प्रेम की पींगे बढ़ा रही है, कौन केरल जाकर नौकरी करता हुआ अपने मां-बाप को पैसे नहीं भेजता, गोद के बेटे के दूध न छोड़ने पर किसकी पत्नी बवाल मचाती है और किसकी बकरी ने तीन-तीन मेमने जने हैं - ऐसी कई तरह की बातों से मजलिस गुलजार हो उठता। और कभी जारी रहती सीरियल-सिनेमा की चटपटी बातें। अमुक बाबू की पत्नी बड़ी ईर्ष्यालु है। अपने देवर तक भला नहीं चाहती। अपनी नाक इतनी ऊंची रखना भी ठीक नहीं। अपनी सास से चुगली कर इतनी अच्छी- भली, सरल-सहज गांव की लड़की को जलाकर मार डाला। लड़की गुण में, घर के कामों में कितनी निपुण थी।
इतना झमेला हो जाने के बाद अब धारावाहिक आगे कैसे बढ़ेगा। देखा नहीं, उस सीरियल में क्या हुआ था? ऐसी ही गप्पें शाम तक चलती रहतीं। पास के मोहल्ले से मगरीब की अजान कानों में पड़ते ही वे सब अपन-अपना साजो-सामान सहेजकर उठ खड़ी होतीं।
रात के खाने के समय एक दिन झुंझलाते हुए अब्बा बोले, ‘तुम लोगों को और कोई काम नहीं है? यह क्या शुरू किया है, बोलो तो। दोपहर को खाने-पीने के बाद जरा शांति से सो भी नहीं सकते। सारा दिन बत्तखों की तरह कें-कें, पें-पें।’
मां बोली, ‘आपको क्यों खटकता है? मोहल्ले में लोगों का एक-दूसरे के घर आना-जाना लगा रहता है। इतनी ही जलन है तो जंगल में रहो जाकर।’
यह सुनकर अब्बा भड़क गए। बोले, ‘बिना दीवर उठाए, लगता है यह सब बंद नहीं होने वाला। दूसरों के घर तो किसी को जाते नहीं देखता। खुला आंगन देखते ही यहां आकर बैठ जाती हैं। करता हूं एक स्थायी बंदोबस्त।’
अब्बा जैसा कहते हैं, वैसा करके ही दम लेते हैं। कुछ ही दिनों में हमारे घर के चारों ओर दीवार खड़ी हो गई। दरवाजा भी एक जड़ दिया गया। दरवाजा अब अंदर से हमेशा बंद रहता। किसी को कोई जरूरत पड़ती तो बाहर से ही आवाज देता और दरवाजा तभी जाकर खुलता।
अब्बा की उक्ति काम आ गई। किसी को मना भी नहीं करना पड़ा। दीवार उठते ही एक-एक कर महिलाओं ने हमारे घर आना बंद कर दिया। मजलिस भी उठ गई।
मजलिस तो उठी परंतु कसीदाकारी बंद हुई क्या? कुछ दिनों से देख रहा हूं, मां कढ़ाई की टोकरी लिए दोपहर होते ही झट से कहीं चल देती है। इतनी धूप में मां कहां जाती होगी? क्या कढ़ाई घर पर नहीं की जा सकती? कौतूहलवश एक दिन पीछा किया। देखा, मोहल्ले के जाफ़र चाचा के बरामदे में मजलिस बैठी है। वही महिलाओं का एक ही समूह। सिर्फ हमारे आंगन से महफिल उठ चुकी है।
रास्ते के किनारे ही है, जाफ़र चाचा का घर। एक दिन सुबह उधर से गुजर रहा था तो देखा कि उनका बड़ा बेटा लियाकत हाथ में कुदाल थामे खुदाई कर रहा है। नारियल के पेड़ के नीचे ईंटों का ढेर जमा था। मैं थमकर खड़ा हो गया।
मुझे देखते ही लियाकत खुद ही दांत निपोरकर बोला, ‘दीवार खड़ा करने जा रहा हूं। खेत का धान उठते ही मेरा ब्याह है। नई बहू आएगी घर। तू ही बता, दीवार खड़ी न करें तो क्या घर में ईमान रहता है?’
पूछा, ‘कहां हो रहा है ब्याह?’
नदी के किनारे स्थित बेनाचापड़ा में। अपनी मझली बहन ज़रीना को जहां ब्याहा है, उसके पास वाले गांव में ही।
इस तरह जाफ़र चाचा के घर से भी मजलिस उठ गई। मां भी अब वहां नहीं जाती। कहां जाए? मजलिस जमाने लायक और कोई खुला आंगन बचा ही नहीं।
कुछ ही सालों में हमारा मोहल्ला बहुत बदल गया है। आसपास के रास्ते-गली सब खत्म हो गए हैं। मिट्टी का घर अब कहीं नहीं दिखता। लगभग सबके घर पक्के हैं। छत भरसक न बन पायी हो, टीन-एस्बेस्टस छाकर ईंटों का घर बनाया है कई लोगों ने। दीवार खड़ी कर सबने अपना अलग आशियाना बसा लिया है। किसके घर पर पुलाव या दूसरा भोजन बनता है और किसके घर की भात जली हो, उसकी गंध दीवार लांघकर आ नहीं पाती।
हमारे अंजीर के पेड़ पर ढेर सारी अंजीरें लगती हैं। खुद जो खा पाते हैं, खा लेते हैं। बाकी सब पक्षी और गिलहरियों के खाने के काम आता है। पकने के बाद मिट्टी पर गिरते हैं और नष्ट होते रहते हैं। मोहल्ले के वे छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां अब अंजीर खाने नहीं आते। कंकड़ मारकर हमें परेशान नहीं करते।
मां को देखता हूं, अब अपनी ही ड्योढ़ी पर चटाई बिछाकर अकेली बैठी रहती है। सुई पिरोकर कढ़ाई करती रहती है और खुद से बड़बड़ाती रहती है।
एक दिन मां के पीछे जाकर खड़ा हुआ। उसे भान नहीं हुआ। पूछा, ‘तुम किससे बातें कर रही थी मां?’
मां चौंक उठी। फिर बोली, ‘मेरे पास क्या बातचीत करने वालों की कमी है बेटे?’
मैंने कहा, ‘कहां मां, यहां तो कोई भी नहीं है?’
मां हंस पड़ी। ये देखो, कहकर उसने सुंदर कसीदाकारी मेरे सामने खोल कर रख दी।
मैंने देखा, वह कढ़ाई नहीं थी, एक खुला हुआ आंगन बनाया था मां ने। वह कसीदाकारी मेरी आंखों के सामने सजीव हो उठी। वहां कौन नहीं था? लियाकत की मां अनसुरा चाची, नइमुल की बीवी हेना भाभी, टेरा सिद्दकी की बीवी दुलेहार और मोहल्ले की अन्य दूसरी औरतें। मां के अपने हाथों से बनाया गया यह आंगन हमारे घर के आंगन से भी कहीं बहुत बड़ा था और चारों ओर कोई दीवार भी नहीं थी।
मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’