प्रकाश मनु
गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर सत्यार्थी जी में अपनी युवावस्था का आत्मचित्र देखते और उन्हें भरपूर स्नेह से नहलाते थे। एक दफा उन्होंने कहा, ‘अगर तुम चाहो तो शाम को चाय के समय नियमित मेरे पास आ सकते हो। हम साथ-साथ चाय पी सकते हैं।’
सत्यार्थी जी के बारे में सोचता हूं, तो बार-बार एक ही बात मन में आती है कि वे लोकगीतों के फकीर थे। और केवल फकीर ही नहीं, बल्कि फकीर बादशाह।
वे इतने सीधे-सरल थे कि राह चलते एक मामूली किसान-मजदूर से भी घंटों बड़े प्यार से बतिया सकते थे। पर इसके साथ ही उनका व्यक्तित्व इतना ऊंचा और आदमकद था कि बीसवीं शताब्दी की साहित्य, कला, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों से जुड़ी बड़ी से बड़ी शख्सियतों में शायद ही कोई ऐसा हो, जिनसे उनकी निकटता न रही हो या आत्मीय मुलाकातें न हुई हों। फिर महात्मा गांधी, गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर, महामना मालवीय, के.एम. मुंशी, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, प्रेमचंद, कलागुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर, महापंडित राहुल सांकृत्यायन से तो उनकी इतनी आत्मीयता थी कि उनसे जुड़े प्रसंगों को लिखने बैठूं तो पूरा एक महाग्रंथ तैयार हो जाएगा।
पंजाब में संगरूर जिले के एक छोटे से गांव भदौड़ में जनमे देवेंद्र सत्यार्थी ने भारत के अलग-अलग अंचलों के लोकगीत इकट्ठे करने के लिए, पूरे देश के गांव-गांव, गली-कूचे, खेत और पगडंडियों की न जाने कितनी बार परिक्रमाएं कर डालीं। लोकगीतों का अनहद नाद उनके भीतर गूंजता था। वही उन्हें यहां से वहां, वहां से यहां ले जाता था। न भाषा इसमें कोई दीवार बनती थी और न प्रांतों की सरहदें। इसलिए कि वह एक ऐसा शख्स था, जो पूरे देश की आत्मा से एकाकार हो चुका था।
अक्सर उनकी जेब में चार पैसे भी न होते, और वे पूरे भारत की परिक्रमा करने निकल पड़ते। कहां जाएंगे, कहां नहीं, कुछ तय न था। कहां ठहरेंगे, क्या खाएंगे-पिएंगे, किस-किस से मिलेंगे, कुछ पता नहीं। बस, पैर जिधर ले जाएं, उधर चल पड़ते। हवाओं के वेग की तरह वे भी जैसे बहते चले जाते। भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति, भिन्न लोग। …पर मन में सच्ची लगन थी, इसलिए जहां भी सत्यार्थी जी जाते, वहां लोग मिल जाते थे। ऐसे भले और सहृदय लोग, जो लोकगीतों का अपना खजाना तो इस फकीर को सौंपते ही, साथ ही उन लीकगीतों के अर्थ और गहनतम आशयों को जानने में भी मदद करते।
इतना ही नहीं, सत्यार्थी जी बार-बार लोकगीतों को सुनकर, उनकी लय को दिल में बसा लेते। फिर जब वे ‘हंस’, ‘विशाल भारत’, ‘माडर्न रिव्यू’ या ‘प्रीतलड़ी’ सरीखी पत्रिकाओं में उन पर लेख लिखते तो लगता, उनके शब्द-शब्द में सचमुच धरती का संगीत फूट रहा है। यही कारण है कि लोकगीतों पर लिखे गए सत्यार्थी जी के लेखों ने गुरुदेव टैगोर, महामना मालवीय, महात्मा गांधी, राजगोपालाचार्य, के.एम. मुंशी, दीनबंधु एंड्रयूज और डब्ल्यू. जी. आर्चर सरीखे व्यक्तित्वों को भी प्रभावित किया था। और गांधी जी ने तो सत्यार्थी जी के इस काम को आजादी की लड़ाई का ही एक जरूरी हिस्सा माना था। पर इन्हें लिखने वाले देवेंद्र सत्यार्थी तब भी बच्चों जैसे सरल थे, और अंत तक बच्चों जैसे सरल और निश्छल ही रहे।
मुझे आज भी याद है वह दिन, जब मैं सत्यार्थी जी से ‘नंदन’ पत्रिका के लिए एक कहानी लेने गया था। मन में उनकी प्रतिभा का कुछ आतंक-सा था, पर वे तो मुझे बच्चों से भी ज्यादा सीधे-सरल लगे। जल्दी ही सत्यार्थी जी के व्यक्तित्व का सम्मोहन मुझ पर कुछ इस कदर छा गया कि अब तो हर तीसरे-चौथे दिन मुलाकातें होने लगीं। धीरे-धीरे सत्यार्थी जी की बातों में उनकी पूरी जीवन कथा मेरे आगे खुलती चली गई। वे अक्सर बहुत भावुक होकर शांति निकेतन का जिक्र किया करते थे, जहां गुरुदेव रबींद्रनाथ से उनकी कई मुलाकातें हुईं तथा उनकी लोकयात्राओं को गुरुदेव का आशीर्वाद मिला।
गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर सत्यार्थी जी में अपनी युवावस्था का आत्मचित्र देखते और उन्हें भरपूर स्नेह से नहलाते थे। एक दफा उन्होंने कहा, ‘अगर तुम चाहो तो शाम को चाय के समय नियमित मेरे पास आ सकते हो। हम साथ-साथ चाय पी सकते हैं।’ सत्यार्थी जी शाम को चाय के समय नियमित गुरुदेव के पास पहुंच जाते थे। इसी तरह शांति निकेतन में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर तथा और भी न जाने कितनी विभूतियों से वे वहां पहले-पहल मिले। यह उनके लिए एक नए जन्म की मानिंद था। एक नया और सार्थक जीवन, जिसने उनके लोकगीत संग्रह के अभियान और घुमक्कड़ी को नया अर्थ दिया। फिर गांधी जी का स्नेह तो उन पर बरसता था। कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में तो गांधी जी ने सत्यार्थी जी को बुलाने के लिए काका कालेलकर को विशेष रूप से भेजा था। वे इस सम्मेलन में शामिल हुए तो गांधी जी ने उन्हें लोकगीतों पर अपना व्याख्यान देने के लिए कहा।
सत्यार्थी जी ने अपने व्याख्यान में खासकर ऐसे लोकगीतों का विशेष रूप से जिक्र किया, जिनमें देश की जनता के दर्द और गुलामी की पीड़ा की अभिव्यक्ति थी। बाद में गांधी जी बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने सत्यार्थी जी के व्याख्यान के साथ-साथ, उनके द्वारा सुनाए गए एक लोकगीत की बेहद प्रशंसा की। उन्होंने भावविभोर होकर कहा, ‘अगर तराजू के एक पलड़े में मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण रख दिए जाएं, और दूसरे में यह लोकगीत, तो लोकगीत का पलड़ा भारी रहेगा।’
आगे चलकर नेहरू जी से सत्यार्थी जी की खासी लंबी और अंतरंग मुलाकातें तब हुईं जब वे अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री थे। तब पं. जवाहरलाल नेहरू के घर पर सत्यार्थी जी की उनसे कोई डेढ़-दो घंटे तक बातचीत चली। उनमें एक फ्रेंच पत्रिका के संपादक भी शामिल थे। आतिथ्य श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया था। जब वे चाय लेकर आईं, नेहरू जी ने सत्यार्थी जी का परिचय कराया। इस पर इंदिरा जी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘मैं इनसे शांति निकेतन में मिल चुकी हूं, गुरुदेव टैगोर के साथ!’
नेहरू जी बाद में प्रधानमंत्री हुए, तब भी उनसे सत्यार्थी जी की कई मुलाकातें हुईं। 1956 में पी.ई.एन. सम्मेलन में सोफिया वाडिया ने नेहरू जी का सत्यार्थी जी से परिचय कराया, तो वे हंसकर बोले, ‘कॉल हिम फोकलोर इंडिया…!’
अपनी लोकयात्राओं की चर्चा करते हुए सत्यार्थी जी डब्ल्यू.जी. आर्चर, दीनबंधु एंड्रयूज, के.एम. मुंशी, वासुदेवशरण अग्रवाल और बलराज साहनी का भी बड़े प्यार से नाम लेते थे, जो सत्यार्थी जी के बहुत निकट थे और जानी-मानी हस्तियों में से थे।
आज सत्यार्थी जी नहीं हैं, पर लोक साहित्य में उनकी पहलकदमी और अनथक लोकयात्राएं इतिहास की अनमोल निधि बन चुकी हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।