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डॉग लवर

कहानी
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चित्रांकन संदीप जोशी
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उन्हें याद आया बच्चों ने कई कुत्ते पाले थे। वो भी उन्हें लिए-लिए घूमते थे। उनके लिए खिलौने लाते थे। उनके साबुन, शैम्पू, कंघा, ब्रश सब अलग रखा जाता था। पर उन्होंने कभी उन कुत्तों को अपने साथ नहीं सुलाया था, न गोदी में उठाया था जबकि सारे कुत्तों को खाना देना उनकी प्राथमिकता रहती थी। घर में कुत्तों के बालों को लेकर हमेशा झगड़ा होता था। फिर भी वे बच्चों की खुशी में खुश रहती थीं लेकिन जिस दिन घर के कुत्ते ने बाई की लड़की को बुरी तरह से घायल कर दिया था।

बेटे के विवाह की बात चल रही थी। परिवार के लोगों का कई लड़कियों को देखने का इरादा था पर उनका मन बार-बार अपने ही संकल्प पर अटक जाता कि लड़की को तभी देखने जाओ जब शादी की संभावना नब्बे प्रतिशत हो। ‘देखने’ की जगह उनको ‘मिलने’ जाना शब्द ज्यादा सभ्य और संवेदनशील लगता था। वैसे भी लड़कियों को लेकर वे काफी संवेदनशील रही हैं। उनकी पसंद-नापसंद, उनकी भावनाएं और उनके प्रति सम्मान का भाव उनके लिए बहुत मायने रखता है। अपनी शादी के वक्त जब सुरेश के परिवार वाले उनको देखने के लिए आने वाले थे तब उन्होंने साफ कह दिया था कि वे ट्रे लेकर नहीं जायेगी। न सजेगी-संवरेगी। जैसी रहती है, जो पहनती हैं वैसी ही उनसे मिलेगी। क्योंकि उनका मानना था रिश्ता दुराव-छुपाव से शुरू नहीं होना चाहिए। सुरेश के परिवार वाले उनको यूं देखकर थोड़ा चौके जरूर थे पर उनकी सादगी और विनम्रता ने ही उनको प्रभावित किया था। यहां आने के पहले ही उन्होंने लड़की यानी तन्वी से स्पष्ट बोल दिया था कि ‘बिल्कुल औपचारिकता की जरूरत नहीं है। मैं आकर होटल में रुकूंगी तुम वहीं आ जाना। उसके बाद हम दोनों को लगेगा कि परिवार वालों से औपचारिक रूप से मिलना चाहिए तो जरूर मिलने चलेंगे।’ तन्वी ने इस बात में सहमति जताई थी। वे जाकर होटल में रुकी। एक घण्टे बाद ही तन्वी उनसे मिलने आ पहुंची। चेहरा और आवाज पहचानने में उन्हें जरा भी दिक्कत नहीं हुई क्योंकि कभी-कभार से उससे व्हाट्सएप- वीडियो पर बात हो जाती थी।

वह फोटो से ज्यादा सुंदर थी। उसके बाल बहुत सुंदर थे। आंखें प्रेम, उमंग, ऊर्जा और सपनों की चमक से दीप्त थी। उसकी आंखों में उसका मन झांक रहा था। उसकी आंखें हंसती हुई, बोलती हुई और भाव-रंगों से भरी हुई थी। ऐसी मनमोहक और खूबसूरत आंखें उन्होंने पहली बार देखी थी। उसने जींस और टी-शर्ट पहनी थी। वह मंदिर से आ रही थी। लंबा तिलक उसके माथे पर लगा था।

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‘यहां कोई दिक्कत तो नहीं है आण्टी।’

‘नहीं। बिल्कुल नहीं।’

‘आप घर में ही रुकती...।’

‘चलूंगी न।’

‘पापा आपसे बात करना चाहते हैं।’

‘पापा से बात करवा देना। मम्मी और दादी कैसी हैं?’

‘दोनों अच्छी हैं। मम्मी के उपवास चल रहे हैं। मम्मी इतने उपवास करती है कि पापा हमेशा नाराज रहते हैं। वैसे भी उनकी तबियत ठीक नहीं रहती है।’

‘अरे।’

‘चलिए आण्टी बाहर चलकर कुछ खाते हैं फिर वोटिंग के लिए चलेंगे। आपको शॉपिंग भी करनी है न। यहां का मार्केट बहुत सुंदर है। लोकल आर्ट मार्केट तो अद्भुत है। आपको जरूर पसंद आयेगा।’

वे उसके साथ चल दीं। सड़क पर गाड़ियां, स्कूटर, मोटरसाइकिल और पैदल चलने वालों की अपार भीड़ थी। ट्रैफिक का कुछ पता ही नहीं था। ऐसा लग रहा था जैसे भीड़ के कई समूह इधर से उधर बह रहे हों!

‘क्या हमेशा ही इतनी भीड़ रहती है।’

‘ऑफिस टाइम है न इसलिए इतनी अफरी-तफरी है।’

‘काफी भीड़ भरा एरिया है। तुम्हारा घर यहां से कितनी दूर पड़ता है।’

‘कोई दस बारह मिलोमीटर दूर...।’

‘तुम्हें यहां आने में दिक्कत हुई होगी?’

‘मैं तो घूमती ही रहती हूं। यहीं से नर्सरी जाना पड़ता है। मुझे पौधे लगाने का बहुत शौक है। मेरा एक एन.जी.ओ. है जो पर्यावरण ‘हारमनी एण्ड फीस’ के लिए काम करता है। हम लोग घर-घर पौधे देने जाते हैं। पन्द्रह दिन का हमारा ये प्रोग्राम होता हैै। हम बीस-पच्चीस लोग मिलकर करते हैं।’

‘हां, नीलेश बता रहा था।’

‘हां, थोड़ा-बहुत।’

‘आपको भी बागवानी पसंद है न।’

‘ये तो बहुत अच्छा काम है।’

दिनभर वे घूमती रहीं बाजर में, मंदिर और फिर तालाब के किनारे। उन्होंने नदी में वोटिंग की। वहां के घाट पर बैठकर भुनी हुई मूंगफलियां खायीं। नीबू पानी पिया। स्थानीय चीजें जो आमतौर पर बूढ़ी महिलाएं डलिया मेें लेकर बैठी रहती है बेर, उबले हुए बेर, कैंथा और देसी फल वे खरीदकर खाये।

‘बचपन के दिन याद आ रहे हैं।’ वे खाते हुए बार-बार अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए उसे किस्से सुना रही थीं। इस बीच तन्वी की मां तथा पिताजी का दो-तीन बार फोन आ चुका था। उसके पापा ने वही बात दोहराई कि आपको घर आना था। होटल में क्यों रुकी हैं। अच्छा हम लोग डिनर पर तो मिल ही रहे हैं। बेटा कब तक आयेगा?

तन्वी ने उनके लिए स्थानीय डिजाइन, कलर और खास कपड़े की साड़ी खरीदी। एक जोड़ा सूट का कपड़ा लिया, शायद इसलिए भी कि तन्वी के लिए बेहद खूबसूरत सिल्क की साड़ी लाई थी। तन्वी बार-बार साड़ी को कंधे पर डालकर खुश हो रही थी। ‘मेरी दादी को साड़ियों का बहुत शौक था। पर मम्मी को दादी की साड़ियां बिल्कुल पसंद नही है। वे टिपिकल बंगाली साड़ियां पहनती हैं। दादी पंजाबी, मम्मी बंगाली और मैं इन सबका मिक्चर...।’ तन्वी जोर से खिलखिला पड़ी।

‘आपको कोई एतराज तो नहीं है आण्टी।’

‘एतराज होता तो आती ही क्यों।’

तन्वी ने अपने घर का एड्रेस जी.पी.एस. पर डाला और टैक्सी वाले को चलने के लिए कहा। वह रास्ते भर अपने शहर के बारे में बताती रही। शहर का इतिहास, कला, संस्कृति, संगीत, स्थानीय बाजार और यहां के लोगों के बारे में उसे अच्छी-खासी जानकारी थी।

‘आपको सुरेश ने बताया था कि मैं शादी थोड़ा रुककर ही करूंगी।’

‘हां। वह भी तीन-चार महीने बिजी है तो शादी तो वैसे भी लेट ही होगी।’

‘जी आण्टी।’

‘तुम अपने माता-पिता की इकलौती संतान हो, सुरेश तो हमेशा बाहर ही रहेगा। उनको छोड़कर जाने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?’

‘उसमें कोई दिक्कत नहीं है आण्टी। हां, दादी की पूरी जिम्मेदारी अभी तो मैं ही उठाती हूं। दादी से मुझे बहुत ज्यादा अटैचमेंट है।’

‘तुम्हारा यही गुण तो मुझे भीतर तक छू गया।’

‘मेरी दादी तो मेरी शादी का ही इंतजार कर रही है।’

तन्वी ने घर पहुंचते ही सबसे पहले अपनी दादी से मिलवाया। वो बिल्डिंग की चौथी मंजिल पर रहती थी। तीसरी मंजिल पर तन्वी के माता-पिता और वो स्वयं रहती थी। दोनों ही छतें गमलों से, बेलों से भरी थीं। छोटी-मोटी नर्सरी ही बना ली थी उसने। तन्वी एक-एक पौधे, फूल तथा पत्तियों के बारे में विस्तार से उन्हें बता रही थी।

पारिवारिक चर्चा के बाद तन्वी के पिता राजनीति पर बात करने लगे। वे बड़े गर्व के साथ बता रहे थे कि तन्वी की दादी समाज सेविका थी। राजनीति में उनका दखल था। कई बड़े पदों पर वे कार्य कर चुकी हैं और यह पूरी बिल्डिंग उन्हीं की है जो उन्हें अपनी नानी से विरासत में मिली थी।

तन्वी ने पिता की बातों पर विराम लगाते हुए उन्हें अपना रूम दिखाने का आग्रह किया। मनीप्लांट की बेल ने उसके कमरे की दीवारों को सुंदर कलात्मक और हरा-भरा बना रखा था। मनी-प्लांट की इतनी कलात्मक सज्जा देखकर वे अभिभूत हो गयी! कई फोटो लगे थे। उसकी अलमारी के ऊपर भी फूल-पत्तियों के स्टीकर लगे थे।

‘अब देखिए मेरे प्यारे डिलरूबा का रूम।’ तन्वी ने चहकते हुए कहा।

तन्वी ने दरवाजा खोला। वो कमरा क्या था अच्छा-खासा बड़ा-सा हॉल था। उसमें ए.सी. लगा था। उसका आकर्षक और आरामदेह झूला पड़ा था। उसका रंग-बिरंगा बिस्तर लगा था। जमीन पर दरी बिछी थी। उसके खाने के बर्तन एक टेबल पर रखे थे। उसके खेलने के लिए खिलौने, बॉल, टेडीबियर और अन्य चीजें रखी थीं। उन्हें देखकर वे चकित रह गयीं। इतना आलीशान कमरा वो भी एक कुत्ते का। दीवारों पर लगे पोस्टरों में कुत्ते की ही तस्वीरें थीं। तन्वी ने अलमारी खोली ‘ये देखिए आण्टी इसकी ड्रेसेज। इतनी सारी ड्रेसेज हैं। ये है इसका फूड। ये इसके अलग-अलग टाइप के बैल्ट।’

‘मैं दो घण्टे इसके साथ खेलती हूं। जिस दिन इसके साथ नहीं खेल पाती उस दिन मेरा मूड ऑफ रहता है। इसके लिए एक लड़का अलग से रखा है जो इसे घूमाता है। इसको नहलाना-धुलाना उसी का काम होता है।’

कुत्ता अपने सोफे पर बैठा था। सफेद रंग का अत्यन्त खूबसूरत हैल्दी और बैल्दी कुत्ता। वो चमकती हुई आंखों से तन्वी की तरफ देखे जा रहा था। तन्वी ने उसे गोदी में उठाया। उसका मुंह चूमा, माथा सहलाया और अपनी छाती से चिपकाकर उससे बातें करने लगी।

‘सुरेश से खूब बातें करता है ये।’

‘हुऊं उसे भी कुत्तों का बड़ा शौक है।’

‘आण्टी, कुत्ता नहीं दिलरूबा नाम है इसका। पहले इसका नाम प्रिंस था पर वो मुझे जमता नहीं था। प्लीज आप भी दिलरूबा बोलिए।’

उन्हें याद आया बच्चों ने कई कुत्ते पाले थे। वो भी उन्हें लिए-लिए घूमते थे। उनके लिए खिलौने लाते थे। उनके साबुन, शैम्पू, कंघा, ब्रश सब अलग रखा जाता था। पर उन्होंने कभी उन कुत्तों को अपने साथ नहीं सुलाया था, न गोदी में उठाया था जबकि सारे कुत्तों को खाना देना उनकी प्राथमिकता रहती थी। घर में कुत्तों के बालों को लेकर हमेशा झगड़ा होता था। फिर भी वे बच्चों की खुशी में खुश रहती थीं लेकिन जिस दिन घर के कुत्ते ने बाई की लड़की को बुरी तरह से घायल कर दिया था, उसके सिर में उसके दांत गढ़ गये थे। महीनों तक उसका इलाज चला था, उसी दिन से घर में कुत्तों का आना निषेध हो गया था।

‘आण्टी, ये बिल्कुल नहीं काटता। आप डरिए मत।’

‘मुझे सचमुच डर लगता है। कई घटनाएं ऐसी हो गयी थीं कि...।’

तभी सुरेश का फोन आ गया। सुरेश दिलरूबा से बातें करने लगा। दिलरूबा भी जीभ निकालकर सुरेश को देखकर कूं-कूं कर रहा था।

‘आण्टी से पूछो यहां आकर उनको कैसा लग रहा है?’

‘बहुत अच्छा। बहुत अच्छा लगा रहा है।’

‘अच्छा सुरेश ये बताओ अगर मेरी शादी होती है तो जाहिर है मैं तुम्हारे पास तो आऊंगी ही। मेरे दिलरूबा के आने की क्या व्यवस्था रहेगी।’

‘क्या व्यवस्था रहेगी मतलब? क्या पहली बार में ही लेकर आओगी?’

‘हां और और क्या? मैं उसे थोड़ी न छोड़ूंगी।’

‘उसके कागज तो होंगे ही न। वैक्सीनेशन सटीर्फिकेट बगैरह...! उसका किराया अलग से लगेगा। तुम तो जानती हो न। कुत्तों का भी किराया लगता है। सारे रूल्स पढ़ लेना।’

‘कुत्तों का किराया से क्या मतलब। मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि तुम उसके किराये के बारे में बात करोगे।’

‘तुम्हें सारी बातों की जानकारी होना चाहिए। मैं तुम्हारे बारे में पहले सोचूंगा न कि तुम्हारे कुत्ते के बारे में।’

‘क्यों! क्यों नहीं सोचोगे मेरे दिलरूबा के बारे में।’

‘मैं तुमसे शादी कर रहा हूं। तुम्हारे कुत्ते से नहीं।’ सुरेश ने हंसते हुए कहा।

‘पर मेरे साथ मेरा दिलरूबा आयेगा।’

‘अभी तो तुम पन्द्रह दिन के लिए आ रही हो।’

‘हां, तो!’

‘पन्द्रह दिन के लिए इतना पैसा खर्च करना बेवकूफी है न।’

‘तुम्हें बेवकूफी लगती होगी पर मैं बिना दिलरूबा के पन्द्रह-बीस दिन तो क्या पन्द्रह घण्टे के लिए भी उसे नहीं छोड़ सकती।’

‘तुम अपनी दादी को छोड़ सकती हो, मम्मी-पापा को छोड़ सकती हो। घर और शहर छोड़ सकती हो पर दिलरूबा को नहीं छोड़ सकती।’

‘बिल्कुल नहीं।’

मैंने भी सात-आठ कुत्तों को रखा था। एक से बढ़िया एक नस्ल के। पर तुम्हारी तरह पागलपन नहीं किया था। मैं मना नहीं कर रहा हूं कि तुम दिलरूबा को नहीं लाओ पर अभी लाने का कोई सेंस नहीं है।’

‘पर सुरेश मुझे तुम्हारी बातों से ऐसा क्यों लग रहा है कि तुम दिलरूबा को लाने नहीं दोगे।’

‘नहीं। ऐसी बात नहीं है तन्वी। विदेश का मामला है। हम लोगों को बहुत सारे काम करने हैं। शादी के बाद तो उसको साथ में लाना ही है।’

तन्वी एकाएक चुप हो गयी। वो कुत्ते का सिर सहला रही थी। उसको लगातार चूम रही थी। उसका चेहरा उदास हो गया था।

‘क्या हुआ...?’ सुरेश ने पूछा।

‘सुनो सुरेश मुझे कोई शादी-वादी नहीं करनी है।’

‘क्यों! क्यों नहीं करनी शादी।’

‘नहीं करनी बस।’

‘पागल हो क्या?’

‘आण्टी, आप इसका इलाज करवाइये। किसी साइक्रिएट्रिस्ट को दिखाइए।’

‘अरे।’

‘ये हमेशा ऐसी ही गैर-जिम्मेदाराना बातें करता है। ये टॉर्चर करने वाली बात अभी भी कर रहा है।’

‘इसमें टॉर्चर करने वाली कौन-सी बात है।’

‘तुम अपने कुत्तों को छोड़ सकते हो, मैं नहीं क्योंकि दिलरूबा मेरे लिए पति से बढ़कर है। दुनिया में उससे बढ़कर मेरे लिए कोई नहीं है। चलिए आण्टी, आपको टैक्सी तक छोड़ देती हूं।’

तन्वी ने उनका हाथ पकड़ा और जबरदस्ती दरवाजे की तरफ धकेलते हुए बढ़ने लगी।

‘क्या हुआ बेटा?’ उसके मम्मी-पापा उससे पूछ रहे थे। सुरेश फोन पर चिल्ला रहा था। वे समझ ही नहीं पा रही थी कि उन्हें क्या करना चाहिए! क्या बोलना चाहिए! हां दिलरूबा उनकी हालत देखकर अलबता भौंके जा रहा था।

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